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प्रीत को रोग लीला

प्रीत को रोग

लाली , का करे है ? या वन में किस संग बतिया के हँस रही है री ....  ऐ री ..... इन झाड संग ?
साँची कहू , लाली तू पगला गई है री , पहले भी कही रानी जु को , लाली ने वैद्य को दिखाय दयो । कबहुँ खग-मृग संग खेलें , कबहुँ गईया संग बोले ? लता-पता सब बात ना करें लाली , यां में का कोई भुत दिखे है तोहे । मैं तो सुनी हूँ तेरो मन करें तब तू रात्रि विश्राम गौशाला में करें है, काहे ? वृषभानु जी को बड़ो महल ना सुहावे तोहे । मखमली सेज छोड़ कबहुँ गौ संग , कबहुँ चन्द्र देख बिताये दे । कोउ पीड़ा है क्या री तोरे हिय में ? कोई गहन रोग .... ???
झाड पात से बतियावे से भलो न होय , कछु सेवा पूजा कर लाली !!
और वन में एकली ना विचरा कर , नाहर का जाने तू कौन की बिटिया है ? कोई कोई कहे , तू बड़ी प्रेम मयी है , भेद ना जाने , जनावर हो या झाड सब संग लाड करती रहे ! मैं तोहे समझाऊं ऐसो ना करा करिये । तू तो ऐसो सब संग बोले , सब तोरे ही ख्याल हो । गहन रोग है , तोहे ???
उधर तो सब शब्द उलझ कर कानों में तो गए ,परन्तु अर्थ ना बना सके , सो वह मुस्कुरा दी । अब वह अपने अर्थ ना लगाने की असमर्थता पर खिलखिलाई या इस ब्रजवासीनि की किसी बात पर , बोलने की अदा पर , या किसी लता ने उसे कोई किस्सा सुनाया , जो सम्भवतः वहीँ सुन पाई हो ,
..... या अपने भीतर ही समा चुके प्रियतम् कि कोई स्मृति .....  ।
मैय्या जोर से बोल रही थी , सम्भवतः उसे ज्ञात था कि यें तो सदा कहीँ खोई रहती है , सो सुन सके । लाडिली एक टक ब्रजवासिनी मईया के मुख को निहारने लगी , लाली के मुख पर अजीब सी स्फूर्ति से मईया का स्वर का वेग स्वतः जाता रहा । अब मैया अपनी बात दया भाव से करने लगी ....इतने में ही पास एक गईया रम्भाई , और डाल पात से बतियाने वाली लाली , गईया की ओर भाग गई .... जैसे गईया ने उसे ही पुकारा हो , और वह विलम्ब ना कर सकती हो , यहाँ ब्रज वासिनी मईया से आज्ञा लेने भर की भी उसे सुध ना रही हो !
......    या लाली को कोई गहन रोग है , चलूँ कीरति जु को फिर कहूँगी ।। श्यामाश्याम ।।। -- सत्यजीत तृषित ।।

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