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Showing posts from June, 2017

आपसे दिल लगाया कभी तो सुनो अब जान निकलती है , बाँवरी जु

आपसे दिल लगाया कभी तो सुनो ,अब जान निकलती जाती है कितनी बेचैनी सी है इस इश्क़ की पल पल जो मुझे रुलाती है उठती हैं आहें रुक रुक कर ,जाने क्यों अरमान सुलगते हैं अश्कों का समंदर हैं आंखों में फिर भी दिल की लगी जलाती है आपसे दिल लगाया .... अब न कहेंगें किसी से हाल ए दिल अपना, अब तक कितनी रुसवाई हुई कोई तुमको कहे कोई बात ज़रा मेरे दिल को कभी न भाती है आपसे दिल लगाया ..... मुझे इश्क़ करने का इल्म तो नहीं ,तुमने है जो दिया वो कम तो नहीं अब रहा नहीं जाता पल भर भी, हर पल तेरी याद सताती है आपसे दिल लगाया...... बस एक सुनना तुम बात मेरी, साँस आखिरी से पहले आ जाना हर साँस अब तेरा नाम ले, हर आरजू तुझे बुलाती है आपसे दिल लगाया कभी तो सुनो , अब जान निकलती जाती है कितनी बेचैनी सी है इस इश्क़ की जो पल पल मुझे रुलाती है

मोहना रे ,बाँवरी जु

मोहना रे! छेड़ो मुरली की तान बहुत दिनन ते मुख न देख्यो अबहुँ मिल्यो आन मोहना रे ! देखत गगन माँहि श्याम घन अकुलावे प्रिय मेरो तन मन पपीहा गावै राग मिलन को जिय जलत अगन समान मोहना रे ! अम्बवा की डारी कूके कोयलिया बैरन भई हाय मेरी पायलिया छनन छनन छन घुँघरू बाजे रे काहे करे पियु मान मोहना रे ! बिरहन की सुधि लेवन वारे आवो मोहना बाँवरी पुकारे तड़पत रहूँ दिन रैन साँवरो जल बिन मछरी समान मोहना रे ! छेड़ो मुरली की तान बहुत दिनन ते मुख न देख्यो अबहुँ मिल्यो आन मोहना रे !

युगल प्रेम तत्व , मृदुला जु

श्री युगल प्रेम तत्व श्री कृष्ण प्राप्ति की चिंतामणि श्री राधिका और श्री राधिका प्रेम प्राप्ति की चिंतामणि श्री कृष्ण ॥।समझने में नेक सो कठिन प्रतीत हो सकता परंतु यही सत्य है ॥ यह चिंतन मात्र उनके लिये है जिन परम सौभाग्यशाली जीवों के हृदय में ब्रज भाव से आगे बढकर श्री युगल की निकुंज सेवा की भावना उदित हो गयी है ॥ कुछ प्रेमी जीव श्री राधिका कृपा से श्री कृष्ण प्रेम का लाभ कर ब्रज लीला रसास्वादन ही करना चाहते हैं परंतु कुछ इस रस से और आगे के रसपथ को पाना चाहते हैं ॥ ये युगल के परस्पर प्रेम से परस्पर की सेवा भावना का रस क्षेत्र है ॥ इसी रसराज्य में प्रवेश पात्रता की बात ऊपर कही गयी । जिस प्रकार ब्रज प्रवेश की पात्रता विशुद्ध श्री कृष्ण प्रेम है उसी प्रकार निकुंज प्राप्ति की पात्रता श्री राधिका के प्रति गाढ़ा अनुराग है जो कि श्यामसुन्दर के प्रति परम प्रेम के बिना प्राप्त नहीं होता ॥ इस गूढ़ संबंध को समझने के लिये हमें प्रेम के स्वभाव को समझना होगा । प्रेम को समझना इसलिये नहीं कहा क्योंकि उसे तो समझा ही नहीं जा सकता मात्र अनुभव किया जा सकता है ॥ तो प्रेम का स्वभाव क्या है ..वह है प्रेमास्प

मैं क्या दूँ 2 , मृदुला जु

    मैं क्या दूँ मैं क्या दूँ ? इस प्रश्न के पीछे के कई भाव हो सकते हैं ॥ एक कि क्या दूँ पाने के लिये दूसरा क्या दूँ देने के लिये तीसरा क्या दूँ उनके सुख के लिये ॥ प्रथम भाव संसारी रखता है जो उनसे कुछ पाना चाहता है चाहें वह सांसारिक भोग हों या मोक्ष । जी हाँ मोक्ष भी तो पाना चाहते न मुमुक्षु ॥ तो पाने की इच्छा वहाँ भी उपस्थित है । पहले भाव की चर्चा की जा चुकी ॥ यहाँ हमें दूसरे भाव की बात कहनी है कि देने के लिये देना ॥ देने के लिये देना कुछ अटपटी बात लगती है क्योंकि पहला भाव और तृतीय भाव की (उनके सुखार्थ देना) हम समझ सकते क्योंकी वहाँ लेना और देना दोनो आते परंतु यहाँ देना ही देना आता तो समझना तनिक कठिन लग सकता ॥ परंतु विश्वास कीजिये ये भी एक अवस्था है । ये अवस्था दोनों अवस्थाओं के मध्य की है। जीव स्वभाव लेने का है । भगवद् स्वभाव तत्सुख देने का और ये इन दोनों की माध्यमिक स्थिती मान सकते ॥ जब जीव भगवद् अनुग्रह से भक्ति में अग्रसर होता है तो भक्तिरस के रसास्वादन के फलस्वरूप मोक्ष की कामना नष्‍ट हो जाती है ॥ और श्री भगवान् की लालसा प्रबल होने लगती है । यही कृष्ण दर्शन लालसा जब अपनी पराकाष्

मैं क्या दूँ , मृदुला जु

श्री राधा              मैं क्या दूँ अक्सर ये जिज्ञासा अनुभव में आती है कि श्री भगवान् कैसै प्राप्त होंगें अथवा श्री वृंदावन कुंज निकुंज की प्राप्ति किस प्रकार होगी । क्या वे कुछ देकर मिल जाते हैं या उन्हें पाने के लिये कुछ देना भी पडता है क्या और यदि हां तो मैं क्या दूँ ॥ एक जीव के हृदय में जगी इस जिज्ञासा ने जैसै प्रेम पथ पर , संपूर्ण प्रीति की रीति पर चिंतन हेतु प्रेरित कर दिया ॥ क्या दे सकते हम उन्हें कुछ उनके योग्य है हमारे पास ये सोचने से पूर्व ये समझें कि देना क्यों ॥ इसके कई उत्तर हैं जो प्रेम की विभिन्न स्थितियों के अनुरूप होते हैं ॥ जो अभी किनारे पर बैठा पूछ रहा है कि क्या दूँ उसके लिये उत्तर है कि भरे घट में कभी कोई अन्य रस समा सकता है क्या , नहीं ना तो उन्हें पाने अर्थात् उनके प्रेम को समाने के लिये प्रथम अपने जनम जनम के संस्कारों से भरे घट को रिक्त करना होगा ॥ ज्ञान मार्ग में , योग मार्ग में  ईश्वर प्राप्ति के साधक को स्वयं ही ये करना होता है परंतु जो प्रेम पथ पाना चाहते हैं वहाँ ये दायित्व स्वयं प्रेमास्पद श्री भगवान ले लेते हैं ॥ वे ही आपके घट को रिक्त कर निज प्रेम से भ

एकात्मकता श्री प्रिया लाल की , मृदुला जु

श्री राधा    एकात्मकता श्री प्रिया लाल की सब कहते हैं कि श्यामसुन्दर की वेणु श्री राधा नाम उच्चारती है ॥ वेणु तो नहीं सुनी री मैंने , पर तोसे कहुँ एक अनुभव अपना ॥ आज पिया के पास गयी जब और उन्हें हृदय सों लगाया तो जाने है क्या हुआ । पता है उनके प्रत्येक आभूषण के प्रत्येक रत्न से प्रत्येक मुक्ता से अपूर्व सुगंध बरस रही थी । जानती है किसकी थी वह दिव्य सुगंधि श्री वृषभानुजा की । वो छोटी छोटी रत्न लडियाँ वो शीश धरे हुये सुंदर मुकुट की नन्हीं नन्हीं सी मुक्तायें जिन्हें श्री राधिका ने स्वयं सजाया है उन्हीं के अपूर्व प्रेम को भरे हुये उनकी सुगंध बिखेर रही हैं । वो कर्ण कुंडलों की सुंदर झालर वो गले में सुसज्जित रतन आभरणों का प्रत्येक रत्न आहा जितना निकट जाती प्रियतम के उतना ही उनकी दिव्य सुगंध में डूबती जाती ॥ कपोलों से कपोल सटाकर जब पिय को लाड लडाया तो उनके कर्ण कुंडलों की मुक्ताओं में से आती श्री कुंजबिहारिणी की नाम ध्वनि से प्राण पुलकायमान् हो उठे ॥ जब शीश धरा वक्ष पर तब गले पडी बैजयन्ती माल से आतीं श्री प्रिया की महक पाकर यू लगा जैसै उसी में डूब जायेंगे ये प्राण ॥प्रत्येक पुष्प और पल्लव

प्रीति की कलियाँ प्यारी सखियाँ , मृदुला जु

श्री राधा   प्रीति की कलियाँ प्यारी सखियाँ हलरावे दुलरावे नित प्राणों से लाड लडावे । निज प्राणों की प्रतिमाओं सी युगल छवि पर बलि बलि जावे ॥ युगल प्रेम के गीत ये गाती लहराती मुस्काती नवल प्रेम के पुष्प खिलातीं ॥ परम त्याग की मूर्ति मनोहर ये युगल सुख में सब सुख पातीं ॥ कभी मंद पवन होकर ये रति श्रम बिंदु सुखातीं । कभी रस बिंदु बन बरस गगन से अतिशय मोद छलकातीं ॥ नित नव मिलन हित साज सजाती  नित नव क्रीड़ा विपुल रचातीं । नित नवीन श्रृंगार धरा प्यारी को प्यारे के हिय को सरसातीं ॥ कभी प्यारी का मान बढाती कभी पिय से मनुहार करातीं । छिप जातीं नित प्रीति निशा में फिर भोर पुनः मुस्कातीं ॥ नन्हें शिशु सों भोले युगल हित  प्रीति रीति नित नवल सिखातीं । नित रंग नवीन भरें ये नित नव रसपान करातीं ॥ छेड़ राग रागिनियाँ सुंदर मन माहीं उमंग सरसातीं । रास रंग की धूम मचातीं नित्य युगल को मोद करातीं ॥ गातीं देकर सुंदर तान करतीं नृत्य ललित ललाम । प्रेम सुवासित युगल हृदय को देतीं ये परम विश्राम ॥।

जौवन मद नव नेहरू मद रूप मदन मद मोद , संगिनी जु

"जौवन मद नव नेहरू मद रूप मदन मद मोद रस मद रति मद चाह मद उन्मद करत विनोद" रूनझुन रूनझुन पायलिया व कंकनों की सरकती रसध्वनि और श्यामा जु का लजा कर पलकों को झुकाना जैसे पवन के मंद झोंकों से मिल रसबूँदें धरा में समाने लगतीं हैं श्यामा जु भी श्यामसुंदर जु के अंक लगी सिमटने लगतीं हैं।उनकी रसदेह पर रति चिन्ह उभरने लगते हैं और वे श्यामसुंदर जु के वक्ष् पर झुकीं सी स्वरस को छुपाने का प्रयास मात्र ही कर पातीं हैं । सखी के हृदय में रससमुंद उमड़ आया है और उसकी भीगी पलकों में श्रीयुगल जु की मिलिततनु छवि स्पष्ट झलकने लगती है।प्रेम सखी तृषित नयनों से श्यामा श्यामसुंदर जु को निहार रही है कि श्यामसुंदर जु श्यामा जु को प्रकृति रस की बात कह उनसे यूँ रसस्कित होने का कारण पूछते हैं।तभी श्यामा जु झुकी पलकों से ही श्यामसुंदर जु को इशारा करतीं हुईं कहतीं हैं कि यह रति चिन्ह आपके प्रेम में मेरे हृदय व अंगकांति को रसमय करते हैं जिसे मैं सहेजने का प्रयास करती हूँ पर सखियों के हमारे प्रति गहन प्रेम से यह रति चिन्ह उभर ही आते हैं।प्रेम सखी अपने प्राणप्रियतम को अत्यधिक सुख पहुँचाने हेतु सदैव युगल सेवा मे

जद्दपि प्यारे पीय कौं रहते है प्रेम अवेस , संगिनी जु

"जद्दपि प्यारे पीय कौं रहते है प्रेम अवेस कुँवरि प्रेम गंभीर तहाँ नाहिंन वचन प्रवेस" प्रियतम श्यामसुंदर श्यामा जु को अंक भर लेने को अति अधीर हुए जाते हैं तभी घन दामिनी जैसे सोची समझी सी चाल चलते सहसा घड़घड़ की तीव्र ध्वनि करते हैं और श्यामा जु झट से श्यामसुंदर जु के कंठ लगतीं हैं।श्यामसुंदर श्यामा जु को धर दबोच लेते हैं अपनी भुजाओं में और नाव से उठकर उन्हें एक तमाल वृक्ष की आढ़ में ले छुपते हैं।गलबहियाँ डाले श्यामा श्यामसुंदर जु परस्पर लिपटे खड़े हैं कि श्यामा जु रसमयी वार्तालाप करने लगतीं हैं।श्यामा जु के मुख से मधुर वाणी सुन श्यामसुंदर जु उन्हें हृदय से सटा लेते हैं और श्यामा जु को निहारने में मग्न हो जाते हैं। प्रिया जु श्यामसुंदर जु से प्रकृति की अति कोमलता और कहीं कहीं अति सुघड़ता का कारण पूछतीं हैं।श्यामसुंदर जु मंद मुस्करा देते हैं और प्रकृति को निहारती श्यामा जु का मुखकमल ताकते हुए इतना ही कहते हैं ताकि प्रिया जु श्यामसुंदर जु से यूँ ही लिपटी रहें।श्यामसुंदर जु की बात सुन श्यामा जु के अधरों पर स्मित दामिनी सी मंद कौंध जाती है और वो प्यारे श्यामसुंदर जु को अपलक निहार कर

बदरा उमगि अँधेरी आई , संगिनी जु

"बदरा उमगि अधेरी आई बिजुरि चमक सोहायौ गरजत गगन मृदंग बजावत चात्रक पीयु पिक गायो" घणघोर काली घटाओं व चटकती बिजुरिया ने शांत भाव अपना लिया है।रस बूँदें थोड़ा छलक कर ही जैसे गहन होने के लिए रूक सी गई हैं पर सर्द हवाओं में मधुर रसझन्कारें अब कोकिल मयूर पिक शुक को रस से सराबोर करती किलकारियाँ भर उठी हैं।यमुना जु का वृंदुपवन अति सरस मंद राग छेड़े हरित हो झूमने लगा है और इनके संग संग झूम उठे सब वन्य व जल पक्षी।प्रियालाल जु निकुंज से यमुना तट पर विहरते हुए एक छोटी सी पर मनमोहक सुंदर नाव में विराजित हैं और उनके चरण यमुना जु के जल में नाव से नीचे लहराते हुए रस में खेल रहे हैं।मयूर मयूरी धरा पर जहाँ थम थम कर नृत्य कर रहे हैं वहीं जलतरंगों पर रसमुग्ध हंस हंसिनी रसक्रीड़ा कर रहे हैं।कोकिल शुक सारि श्रीयुगल जु के अति गहनरस व सरस प्रेम में पगे गीत गुनगुना रहे हैं। पक्षियों की अति सुमधुर मन को मोह लेने वाली भाव प्रस्तुति जहाँ एक तरफ युगल को रस में नहला रही है वहीं यह वन्य जीव श्यामा श्यामसुंदर जु के आगमन से अत्यंत विभोर हो नाच रहे हैं।सखी इन कपोत चंद्रचकोर कोकिल पपीहे की पीयु पीयु वाणी से सु