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Showing posts from April, 2018

भुलिया तोमारे सँसारे

भुलिया तोमारे संसारे आसिया पेये नाना विध ब्यथा तोमारे चरणे असियाची आमी बोलिबो दुखहेरे कथा भुलिया... जननी जठरे छिलाम जखोना भीष्म बंधन पासे एक बार प्रभु देखा दिया मोरे वांछिले दिन दासे भुलिया.... ताखोना भावेनु जन्म पाया कोरिबो भजन तव जन्म होइलो पड़ी माया जाले ना होइलो ज्ञान लव भुलिया.... आधरेरे छेले स्व जनेरे कोले हसिया कटानु काला जनक जननी स्नेहते भुलिया संसार लागेलो भालो भुलिया...... क्रमे दिन दिन बालक होइया खेलिनु बालक सहा आर किछु दिने ज्ञान उपजिलो पाठ पौढ़ी आहार अहा भुलिया..... विद्यार गौरवे भृमि देसे देसे धन उपर्जन करि स्वजन पालन कोरि एक मने भुलिनो तोमारे हरि भुलिया...... बारदखेये एखोना भक्तिविनोदा कानदिया कातर अति ना भाजिया तोरे वृथा दिन गेलो एखौना की होवै गति भुलिया .......

गाम्भीर्यशालिनी श्यामा उज्ज्वल श्रीप्रिया संगिनी जु

*गाम्भीर्यशालिनी* "भूलै भूलै हूँ मान न करि री प्यारी तेरी भौहैं मैली देखत प्रान न रहत तन। ज्यौं न्यौछावर करौं प्यारी तोपै काहे तें तू मूकी कहत स्याम घन।। तोहिं ऐसें देखत मोहिंब कल कैसे होइ जु प्रान धन। सुनि श्रीहरिदास काहे न कहत यासौं छाँड़िब छाँड़ि अपनौ पन।।" सिंहनी का दूध कुंदन के पात्र में ही समा सके ना सखी...और कोई धातु ना भर सके...और ना सहेज सके इसे... आलि री...अब पहले तो पात्र भरने के लिए ही कुछ ऐसी बुद्धि चाहिए कि सिंहनी उत्तेजक ना होकर प्रेरक बने...इतना आसान तो नहीं ना... एक बालक जिसे तनिक भी समझ ना है और उसे माँ के अलावा कोई समझ सके ऐसी समता सामर्थ्य भी और किसी में ना होवे...अब कोई अत्यंत रसीला हो और उस छलकते रसीले को रस की चाह ही उत्कण्ठित करे तो उसके रस को बिन चखे कोई अतीव रसीला ही उसे सहेज कर और भरे ना...ना समझी ना... अरी... इतना सरल होता प्रेम तो अपात्र भी भर लेता...पर स्वयं को रिक्त कर भर पाने के लिए अहम् का त्याग भी हो और तत्सुख की अहमता का गहनतम प्रेमभाव भी...अहा... ... ... पर ऐसा सम्भव क्या ? नहीं ना...तो पात्रता हांसिल करना और उसे सहेज कर रखना कोई लड़

धैर्यधारिणी श्रीसुकुमारी श्यामा जू"भाव-2 उज्ज्वल श्रीप्रियाजू

"धैर्यधारिणी श्रीसुकुमारी श्यामा जू"भाव-2 *श्रीराधारसिकेश्वरीं प्रणयिनीं सर्वांगभूषावृतां श्रीवृंदावननिकुञ्जकेलिनिपुणां कोटीन्दुशोभायुताम्। श्रीकृष्णः निकुञ्जेश्वरीं सुखकरीं इच्छासखीपोषिणीम्।* सखी री...जब वार्ता प्रेम व धैर्य की हो रही तो प्रेम में धैर्य की सुधि नहीं रहती...यह हमारे प्राणप्रियतम का गुण है...हालाँकि वे असीम कृपा करते अनंत बार भक्तों के प्रति धैर्यवान हो भी जाते और उन्हें कामनाओं से मुक्त करने हेतु प्रतिकूल परिस्थितियों में भी रखते...पर सखी...परम भक्तिमति दयालु हमारी श्रीकिशोरी जू का प्राणप्रियतम हेतु प्रेम इतना गहन है कि स्वयं प्रियतम सकाम हो उनके चरणों की सेवा करने को तत्पर हो जाते... सखी री...अति पवित्र व निष्काम प्रेम हमारी स्वामिनी जू का...ऐसा इसलिए कि उनकी कोई निज कामना नहीं प्रियतम प्रेम पाने की...अपितु वे तो रूपराशि की...प्रेम की ऐसी रसीली मुर्त हैं कि प्रियतम हेतु ही प्रियतम से प्रेम कर उन्हें सुख प्रदान करतीं...वे तो अति उच्च कोटि की प्रेम भक्ति स्वरूपा हैं कि भगवदप्रेम में देहाध्यास ही छूट जाए ऐसा निश्चल सहज प्रेम उनका...और ऐसा निष्काम कि प्रेम प

राधिका स्तुति

! राधिका  स्तुति ! करुणामयी गोविंद मोहिनी ! रानी राधिके !रानी राधिके ! कीर्तिदा आनन्दिनी ! गोपी राधिके !रानी राधिके ! बरसाना वासिनी !गहवरवन चारिणी ! रानी राधिके !रानी राधिके ! निकुञ्ज निवासिनी !पद्मालोचने ! रानी राधिके !रानी राधिके ! कमल धारिणी !गोलोक मोहिनी ! रानी राधिके !रानी राधिके ! राधाकुंड तट वासिनी !माया मोहिनी ! रानी राधिके !रानी राधिके ! कृष्ण विमोहिनी !भाव भाविनी ! रानी राधिके ! रानी राधिके! मदोन्मादिनी , रास रस मोहिनी ! रानी राधिके ! रानी राधिके ! कृष्ण प्राणाधिका रानी राधिके ! कृष्णप्रेम विनोदिनी रानी राधिके ! कृष्णानंद प्रदायिनी रानी राधिके ! कृष्णध्यानप्रायाना रानी राधिके ! श्रीकृष्णांगसुबुद्धियात्री रानी राधिके ! कृष्णस्याह्लादिनी रानी राधिके ! कृष्ण सम्मोहिनी नित्या रानी राधिके ! कृष्णानंद प्रवर्धिनी किशोरी रानी राधिके ! मधुरा !नित्य-नव-वयस्का ! रानी राधिके !रानी राधिके !चंचलकटाक्षविशिष्टा !उज्ज्वल-मृदुमधुरहास्यकारिणी ! रानी राधिके !रानी राधिके ! चारूसौभाग्यरेखाढया !गन्धोन्मादितमाधवा ! रानी राधिके !रानी राधिके ! संगीतप्रसराभिज्ञा !रम्यवाक्

धैर्यशालिनी श्रीलालन सुखदायिनी "उज्ज्वल श्रीप्रियाजु"

*धैर्यशालिनी श्रीलालन सुखदायिनी* "जो कछु कहत लाड़िलौ लाड़िली जू सुनियै कान दै। जो जिय उपजै सो तिहारेई हित की कहत हौं आन दै।। मोहिं न पत्याहु तौ छाती टकटोरि देखौ पान दै। श्रीहरिदास के स्वामी स्यामा कुंजबिहारी जाचक कौं दान दै।।" *धैर्य* ...अहा...कितना मधुर लगता है ना यह धैर्य शब्द...एक प्रीतिक्षण वर्धमान रसधारा जो निरंतर निर्मल बहती भी और थम थम कर संभलती सहजता सजलता से...एक प्रेम वाणी हिय की जो मौन रह रसनिर्झरन भी करती और संकुचित भी... सखी री...पर ऐसा धैर्य सुना ना देखा जाता अन्यत्र कहीं...इसका वास जहाँ सहज उद्घित निश्चल निष्पक्ष निरपेक्ष प्रेम...वहीं...वहीं...बस वहीं... ... ... अब यह कहीं भी संभव कहाँ...क्योंकि सांचि प्रीति कौन निभाह्वै...कोई ना री... ये सहज प्रीति केवल और केवल भक्त और भक्तवत्सल भगवान में ही हो सकती है सखी...निरख यहाँ वहाँ कहाँ ऐसा धैर्यशाली प्रेम है जहाँ भगवान स्वयं धैर्य हीन हुए भक्तवत्सल्ता के वशीभूत दौड़े चले आते नंगे पग...आह... ... ...सर्वसुखदायी... सर्वनिधियों के पालक...निहंता अहंता के सर्वहितकारी हमारे प्रियतम श्यामसुंदर...ऐसे प्रेमपाश में बंधे सद