राधे~राधे
अप्रत्याशित रूप से सहसा गोपी के आने की आहट पाकर, अन्य सभी ग्वाल-वालों के साथ- वह ग्वाल भी, जिसकी पीठ पर खड़े होकर 'नन्हे नटखट कान्हा' छीके की मटकी से माखन चुरा रहे थे- उनके नीचे से निकल कर तीव्र गति से चुपचाप भाग गया। 'नन्हें नटखट कान्हा' असहाय से छीके पर लटके रह गये।
गोपी आई, देखा। नन्हें माखनचोर को इस अवस्था में लटके देख गोपी की हँसी छूट पड़ी। हृदय में प्रेम वात्सल्य का झरना सा झरने लगा, जिसकी फुहारों में गोपी आकंठ डूब गयीं। ममता की मारी ममत्व वात्सल्य से ओतप्रोत गोपी, रोष करने के स्थान पर आगे बढ़कर नन्हें कान्हा को छीके से उतारने लगी।
'नन्हे नटखट कान्हा' भी कम नहीं। प्रत्यक्ष में असहाय से-जैसे ही गोपी ने उतारना प्रारम्भ किया, मन ही मन मुस्कराते हुये, फिसलकर समा गये गोपी के वक्षस्थल में-
"आहा ! मेरा चितचोर मुझमें समा गया, गोपी के आनन्द की कोई पराकाष्ठा ही नहीं।अगाद्य प्रेम अखंड अनुराग, जनम जनम की प्यासी मानों मनहर गिरधर प्यास बुझा रहें हैं-अंतर घट घट प्यासी की"
मिलन के पश्चात विरह का उपहार देना तो छलिया का स्वभाव है। गोपी डूबी रही एक अवर्णनीय नैसर्गिक तृप्ति में और 'नटखट नन्हें कान्हा' चुप से सरक कर भाग गये अपने सखाओं के पास। रोम रोम में कान्हा समाहित, प्रेम और भक्ति में आकंठ गहरे तक डूबी गोपी को अब अन्य क्षणों की आवश्यकता नहीं। कन्हैया से विरह के क्षण भी वह इन सौभाग्य से मिले दुर्लभ क्षणों के सहारे ही गुजार देगी।
(रचना :डाॅ.मँजु गुप्ता। फेसबुक पोस्ट से साभार)
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