श्री ध्रुवदास जी कृत बयालीस लीला से उद्घृत
श्री वृन्दावन सत लीला
प्रथम नाम श्री हरिवंश हित, रत रसना दिन रैन।
प्रीति रीति तब पाइये ,अरु श्री वृन्दावन ऐन।।1।।
चरण शरण श्री हरिवंश की,जब लगि आयौ नांहि।
नव निकुन्ज नित माधुरी, क्यो परसै मन माहिं।।2।।
वृन्दावन सत करन कौं, कीन्हों मन उत्साह।
नवल राधिका कृपा बिनु , कैसे होत निवाह।।3।।
यह आशा धरि चित्त में, कहत यथा मति मोर ।
वृन्दावन सुख रंग कौ, काहु न पायौ ओर।।4।।
दुर्लभ दुर्घट सबन ते, वृन्दावन निज भौन।
नवल राधिका कृपा बिनु कहिधौं पावै कौन।।5।।
सबै अंग गुन हीन हीन हौं, ताको यत्न न कोई।
एक कुशोरी कृपा ते, जो कछु होइ सो होइ।।6।।
सोऊ कृपा अति सुगम नहिं, ताकौ कौन उपाव
चरण शरण हरिवंश की, सहजहि बन्यौ बनाव ।।7।।
हरिवंश चरण उर धरनि धरि,मन वच के विश्वास कुँवर कृपा ह्वै है तबहि, अरु वृन्दावन बास।।8।।
प्रिया चरण बल जानि कै, बाढ्यौ
हिये हुलास।
तेई उर में आनि है , वृंदा विपिन प्रकाश।।9।।
कुँवरि किशोरीलाडली,करुणानिध सुकुमारि ।
वरनो वृंदा बिपिन कौं, तिनके चरन सँभारि।।10।।
हेममई अवनी सहज,रतन खचित बहु रंग।।11।।
वृन्दावन झलकन झमक,फुले नैन निहारि।
रवि शशि दुतिधर जहाँ लगि, ते सब डारे वारि।।12।।
वृन्दावन दुतिपत्र की, उपमा कौं कछु नाहि।
कोटि - कोटि बैकुण्ठ हूं, तेहि सम कहे न जाहिं ।।13।।
लता - लता सब कल्पतरु, पारिजात सब फूल।
सहज एक रस रहत है, झलकत यमुना कूल ।।14।।
कुंज - कुंज अति प्रेम सों, कोटि - कोटि रति मैन।
दिनहिं सनवाल रहत है, श्री वृन्दावन ऐन ।।15।।
विपिनराज राजत दिनहिं, बरसत आनन्द पुंज।
लुब्ध सुगन्ध पराग रस, मधुप करत मधु गुंज।।16।।
अरुण नील सित कमल कुल, रहे फूलि बहुरंग।
वृन्दावन पहिरे मनों, बहु बिधि बसन सुरंग।।17।।
हितसों त्रिबिध समीर बहै, जैसी रुचि जिहि काल।
मधुर - कोकिला, कूजत मोर मराल ।।18।।
मण्डित यमुना वारि यों, राजत परम् रसाल।
अति सुदेस सोभित मनों, नील मनिन की माल।।19।।
विपिन धाम आनन्द कौ, चतुरई चित्रित ताहि।
मदन केलि सम्पति सदा,तेहि करि पूरन आहि।।20।।
देवी वृन्दाबिपिन की,वृन्दा सखी सरूप।
जेहि विधि रुचि होई दुहुन की,तेहि विधि करत अनूप।।21।।
छिन - छिन बन की छबि नई, नवल युगल के हेत।
समुझि बात सब जीय की,सखि वृन्दा सुख देत।।22।।
गावत वृन्दाविपिन गुन, नवल लाडिलीलाल।
सुखद लता फल फूल द्रुम, अदभुत परम् रसाल।।23।।
उपमा वृन्दाबिपिन की,कहि धौं दीजै काहि।
अति अभूत अदभुत सरस, श्री मुख बरनत ताहि।।24।।
आदि अन्त जाकौ नहीं, नित्य सुखद बन आहि।
माया त्रिगुन प्रपञ्च की, पवन न परसत ताहि।।25।।
वृन्दाबिपिन सुहावनो, रहत एक रस नित्त।
प्रेम सुरंग रँगे तहाँ , एक प्रान द्वे मित्त।।26।।
अति स्वरूप सुकुमार तन, नव किशोर सुखरास।
हरत प्राण सब सखिन के,करत मन्द मृदु हास।।27।।
नयारौ है सब लोक ते, वृन्दावन निज गेह।
खेलत लाडली लाल जहँ, भीजे सरस् स्नेह।।28।।
गौर- श्याम तन मन रँगे, प्रेम स्वाद रस सार।
निकसत नहिं तिहि ऐन तें, अटके सरस् विहार।।29।।
बन है बाग सुहाग कौ, राखयौ रस में पागि।
रूप रंग के फूल दो, प्रीति लता रहे लागि।।30।।
मदन सुधा के रस भरे, फूलि रहे दिन रैन।
चहुँदिश भृमत न तजत छिन, भृंग सखिन के नैन ।।31।।
कानन में रहैं झलकि कै, आनन विवि विधु काँति।
सहज चकोरी सखिन की, अखियाँ निरखि सिरांत ।।32।।
ऐसे रस में दिन मगन, नहि जानत निशि भोर।
वृन्दावन में प्रेम की , नदी बहै चहुँ ओर।।33।।
महिमा वृन्दा बिपिन की,कैसे कै कहि जाय।
ऐसे रसिक किशोर दोऊ, जामे रहे लुभाय।।34।।
विपिन अलौकिक लोक में, अति अभूत रसकन्द।
नव किशोर इक वैस द्रुम, फुले रहत सुछन्द।।35।।
पत्र फूल लता प्रति, रहत रसिक पिय चाहि ।
नवल कुँवरि दृग छटा जल, तिहि करि सींचे आहि ।।36।।
कुँवरि चरन अंकित धरनि, देखत जिहि-जिहि ठौर ।
प्रिया चरन रज जानि कै, लुठत रसिक सिरमौर ।।37।।
वृन्दावन प्यारौ अधिक, बातें प्रेम अपार ।
जामें खेलति लाडिली, सर्वसु प्रान अधार ।।38।।
सबै सखी सब सौंज लै, रँगी जुगल ध्रुव रँग ।
समै समै की जानि रुचि, लियै रहति है सँग ।।39।।
वृन्दावन वैभव जितौ, तितौ कह्यौ नहिं जात ।
देखत सम्पति विपिन की, कमला हु ललचात ।।40।।
वृंदावन की लता सम, कोटि कल्पतरु नाहिं।
रज की तूल बैकुंठ नही, औऱ लोक किहि माहिं।।41।।
श्रीपति श्रीमुख कमल कह्यौ, नारद सौं समुझाइ।
वृन्दावन रस सबन तें, राख्यो दूरि दुराइ।।42।।
अंश- कला औतार जे, ते सेवत है ताहि।
ऐसे वृन्दाविपिन कों, मन- वच कै अवगाहि ।।43।।
शिव - विधि - उद्धव सबन के, यह आशा है चित्त।
गुल्म लता ह्वै सिर धरै, वृन्दावन रज नित्त।।44।।
चतुरानन देखयौ कछू, वृन्दाविपिन प्रभाव।
द्रुम - द्रुम प्रति अरु लता प्रति, औरै बन्यौ बनाव।।45।।
आप सहित सब चतुर्भुज, सब ठाँ रह्यौ निहार।
प्रभुता अपनी भूल गयौ, तन मन के रह्यौ हार ।।46।।
लोक चतुर्दश ठकुरई, संपति सकल समेत।
सब तजि बस वृन्दाविपिन, रसिकन कौ रस खेत ।।47।।
सकहि तौ वृन्दाविपिन बसि, छिन- छिन आयु विहात।
ऐसो समौ न पाइये, भली बनी है घात।।48।।
छाँड़ि स्वाद सुख देह के, औऱ जगत की लाज।
मनहिं मारि तन हारि कै, वृन्दावन में गाज।।49।।
वृन्दावन के बसत ही, अंतर जो करै आनि ।
तिहि सम शत्रु न और कोऊ, मन बच कै यह जानि।।50।।
वृन्दावन के वास कौ , जिनके नही हुलास ।
माता- मित्र - सुतादि - तिय, तज ध्रुव तिनकौ पास ।।51।।
और देश के बसत ही, अधिक भजन जो होइ।
इहि सम नही पूजत तऊ, वृन्दावन रहै सोई।।52।।
वृन्दावन में जो कबहुँ , भजन कछु नहिं होय।
रज तौ उड़ि लागै तनहिं, पीवै यमुना तोय।।53।।
वृन्दाविपिन प्रभाव सुनि आपनो ही गुन देत ।
जैसे बालक मलिन कौं , मात गोद भर लेत ।।54 ।।
और ठौर जो यतन करै, होत भजन तऊ नाहिं ।
हाँ फिरै स्वारथ आपने, भजन गहे फिरै बाँह ।।55।।
और देश के बसत ही, घटत भजन की बात।
वृन्दावन में स्वारर्थो , उलटि भजन ह्वै जात।।56।।
यद्यपि सब औगुन भरयौ, तदपि करत तुव ईठ।
हितमय वृन्दाविपिन कौं, कैसे दीजै पीठ ।।57।।
वृन्दावन के अनत ही, जेतिक द्योस विहात ।
ते दिन लेखे जिन लिखो वृथा अकारथ जात ।।58 ।।
भजन रसमई विपिन धर, समुझि बसै जो कोई।
प्रेम - बीज तेहि खेत तें, तब ही अंकुर होय।।59।।
यद्यपि धावत विषै कौं, भजन गहत बिच पानि ।
ऐसे वृन्दाविपिन की सरन गही ध्रुव आनि।।60।।
बसिबो वृन्दाविपिन कौ, जिहि तिहि बिधि दृढ़ होइ।
नही चूकै ऐसौ समौ, जतन कीजिये सोइ।।61।।
कँह तू कहँ वृन्दाविपिन ,आनि बन्यौ भल बान।
यहै बात जिय समुझि कै,आपनो छाँड़ सयान ।।62।।
छीन भंगुर तन जात है, छाँड़हि विषै अलोल।
कौड़ी बदले लेहि तू, अदभुत रतन अमोल ।।63।।
कोटि - कोटि हीरा रतन, अरु मनि विविध अनेक।
मिथ्या लालच छाँड़ि कै, गहि वृन्दावन एक ।।64।।
नहिं सो माता - पिता नहिं, मित्र पुत्र कोऊ नाहिं।
इनमे जो अंतर करै, बसत वृन्दावन माहिं ।।65।।
नाते जेते जगत के, ते सब मिथ्या मान।
सत्य नित्य आनन्द मय, वृन्दावन पहिचान ।।66।।
बसिके वृन्दाविपिन में, ऐसी मन में राख ।
प्राण तजौ बन ना तजौ, कहौ बात कोऊ लाख।।67।।
चलत फिरत सुनियत यहै, (श्री) राधाबलभलाल ।
ऐसे वृन्दाविपिन में ,बसत रहौ सब काल।।68।।
बसिबौ वृन्दाविपिन कौ, यह मन में धरि लेहु।
कीजै ऐसौ नेम दृढ़, या रज में परै देह।।69।।
खण्ड – खण्ड ह्वै जाइ तन, अंग -अंग सत टूक ।
वृन्दावन नहिं छाँड़िये, छाँड़िबौ है बड़ चूक ।।70।।
पटतर वृन्दाविपिन की,कहिं धौं दीजै काहि।
जेहि बन की ध्रुव रेनु में, मारीबौ मंगल आहि।।71।।
वृन्दावन के गुनन सुनि,हित सौं रज में लोट।
जेहि सुख कौं पूजत नहीं, मुक्ति आदि सत कोट ।।72।।
सुरपति - पशुपति- प्रजापति, रहे भूल तेहि ठौर ।
वृन्दावन वैभव कहौ, कौन जानिहै औऱ ।।73।।
यद्यपि राजत अवनि पर, सबतें ऊँचौ आहि।
ताकि सम कहिये कहा, श्रीपति बंदत ताहि।।74।।
वृन्दावन वृन्दाविपिन, वृन्दा कानन ऐन।
छिन - छिन रसना रटौ कर, वृन्दावन सुख दैन।।75।।
वृन्दावन आनन्द घन , तो तन नशवर आहि।
पशु ज्यों खोवत विषै रस, काहि न चिंतत ताहि।।76।।
वृन्दावन वृन्दा कहत, दुरित वृन्द दुरि जाहिं।
नेह बेलि रस भजन की, तब उपजै मन माहिं।।77।।
वृन्दावन श्रवनन सुनहि, वृन्दावन को गान।
मन वच कै अति हेत सौं, वृन्दावन उर आन।।78।।
वृन्दावन को नाम रट, वृन्दावन कौं देख।
वृन्दावन सों प्रीति कर, वृन्दावन उर लेख ।।79।।
वृन्दा विपिन प्रनाम करि, वृन्दावन सुख खान।
जो चाहत विश्राम ध्रुव, वृन्दावन पहिचान ।।80।।
तजि कै वृन्दाविपिन कौं, और तीर्थ जे जात।
छाँड़ि विमल चिंतामणी, कौड़ी कौं ललचात।।81।।
पाइ रतन चिन्हों नहीं, दिनों कर तें डार ।
यह माया श्रीकृष्ण की, मोह्यौ सब संसार।।82।
प्रगट जगत में जगमगै वृन्दाविपिन अनूप।
नैन अछत दीसत नहीं, यह माया कौ रूप।।83।।
वृन्दावन कौ यश अमल, जिहि पुराण में नाहिं।
ताकी बानी परौ जिन, कबहुँ श्रवनन माहिं।।84।।
वृन्दावन कौ यश सुनत, जिनकै नहीं हुलास।
तिनकौ परस न कीजिये, तज ध्रुव तिनकौ पास।।85।।
भुवन चतुर्दश आदि दै, ह्वै है सबकौ नास।
एक छत वृन्दाविपिन घन, सुख कौ सहज निवास ।।86।।
वृन्दावन इह विधि बसै, तजि कै सब अभिमान।
तृण तेन नीचौ आप कौं, जानै सोई जान ।।87।।
कोमल चित्त सब सों मिलै, कबहुँ कठोर न होइ।
निस्प्रेही निर्वेरता, ताकौ शत्रु न कोइ।।88।।
दूजे – तीजे जो जुरै, साक – पत्र कछु आय।
ताही सों सन्तोष करि, रहै अधिक सुख पाय ।।89।।
देह स्वाद छूट जाहिं सब, कछु होइ छीन शरीर।
प्रेम रंग उर में बढ़े, बिहारै यमुना तीर।।90 ।।
युगल रूप की झलक उर, नैन रहै झलकाइ।
ऐसे सुख के रंग में, राखै मनहिं रँगाइ।।91।।
आवै छवि की झलक उर, झलकै नैनन वारि।
चिंतत साँवल– गौर तन, सकहि न तनहिं सँभारी ।।92।।
जीरन पट अति दीन लट, हिये सरस् अनुराग।
विवस सघन बन में फिरै, गावत युगल सुहाग ।।93।।
रस में देखत फिरै बन, नैनन बन रहै आइ।
कहुँ–कहुँ आनन्द रंग भरी, परै धरनि थहराइ ।।94।।
ऐसी गति ह्वै कबहुँ, मुख निसरत नहिं बैन।
देखि– देखि वृन्दाविपिन, भरि– भरि ढारै नैन।।95।।
वृन्दावन तरु–तरु तरे, ढरै नैन
सुख नीर।
चिंतत फिरै आबेस बस, साँवल –गौर शरीर।।96।।
परम् सच्चिदानंद घन, बृन्दाविपिन सुदेश ।
जामें कबहुँ होत नहिं, माया काल प्रवेश।।97।।
शारद जो सत कोटि मिलि, कलपन करैं विचार।
वृन्दावन सुख रंग कौ, कबहुँ न पावै पार ।।98।।
वृन्दावन आनन्द घन, सब ते उत्तम आहि।
मोते नीच न और कोऊ, कैसे पैहों
ताहि।।99।।
इत बौना आकाश फल, चाहत है मन माहिं ।
ताकौ एक कृपा बिना , और यतन कछु नाहिं ।।100।।
कुँवरि किशोरी नाम सों, उपज्यो दृढ़ विश्वास ।
करुणानिधि मृदु चित्त अति, ताते बढ़ी जिय आस ।।101।।
जिनकौ वृन्दाविपिन है, कृपा तिनहि की होइ।
वृन्दावन में तबहि तौ, रहन पाइ है सोइ।।102।।
वृन्दावन सत रतन की, माला गुही बनाइ।
भाल भाग जाके लिखी, सोई पहिरै आइ।।103।।
वृन्दावन सुख रंग की, आशा जो चित्त होइ।
निशि दिन कंठ धरै रहै, छिन नहिं टारै सोइ।।104।।
वृन्दावन सत जो कहै, सुनि है नीकी भाँति।
निसदिन तेहि उर जगमगे, वृन्दावन की काँति।।105।।
वृन्दावन कौ चितंबन, यहै दीप उर बार।
कोटि जन्म के तम अघहि, कोटि करै उजियार ।।106 ।।
बसिकै वृन्दाविपिन में इतनो बड़ौ सयान।
युगल चरण के भजन बिन, निमिष न दीजै जान ।।107।।
सहज विराजत एक रस, वृन्दावन निज धाम।
ललितादिक सखियन सहित, क्रीडत स्यामा श्याम ।।108।।
प्रेम सिंधु वृन्दाविपिन, जाकौ अंत न आदि।
जहाँ कलोलत रहत नित, युगल किशोर अनादि।।109।।
न्यारो चौदह भवन तै, वृन्दावन निज भौन।
तहाँ न कबहुँ लगत है महा प्रलय की पौन।।110।।
महिमा वृन्दाविपिन की, कहि न सकत मम जिह।
जाके रसना द्वे सहस, तीनहुँ काढी लीह।।111।।
एती मति मोपै कहा , शोभा निधि बनराज।
ढीठो कै कछु कहत हौं, आवत नहिं जिय लाज।।112।।
मति प्रमान चाहत कह्यौ, सोऊ कहत लजात।
सिंधु अगम जेहि पार नहिं, कैसे सीप समात।।113।।
या मन के अवलंब हित, कीन्हों आहि उपाय।
वृन्दावन रस कहन में,मति कबहुँ उरझाय ।।114।।
सोलह सै ध्रुव छ्यासिया,पून्यौ अगहन मास।
यह प्रबन्ध पूरन भयौ, सुनत होत अघ नास।।115।।
दोहा वृन्दाविपिन के , इकसत षोडश आहि ।
जो चाहत रस रीति फल, छिन छिन ध्रुव अवगाहि ।।116।।
Shri harivansh🙏
ReplyDeleteJai Jai Shree Radhe
ReplyDeleteश्री हरिवंश अति सुंदर प्रयास है राधाबल्लवी संप्रदाय को आगे बढ़ाने के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद श्री हरिवंश श्री हरिदास
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