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Showing posts from January, 2016

ज्ञान और अज्ञान

अबोध , अधम अज्ञानी ! इन्हें कहना भर ही या मानना भी होता है । जो स्वयं को अज्ञानी कह लेते है ! क्या वाकई ऐसा है ! वें अज्ञानी है क्या ? देखियें जो अबोध है ... अज्ञानी है वो तो निश्चित ही प्रभु के निकट है ! बिल्कुल निकट ! ज्ञान का अर्थ है भगवत् ज्ञान ... आत्मा - परमात्मा का ज्ञान और जिसे यें है उसे ही तत्व ज्ञान है ! जिसे किसी ख़ास किसी तत्व का ज्ञान है वो उस विषय का विज्ञानी है पर शेष तत्वों से वो भी अपरिचित् है ! परमात्मा का सर्वत्र आभास - दर्शन और बोध है कि चावल के दाने में ईश्वर क्या कर रहे है ? और पुष्प में क्या ? और मिट्टी के कण में क्या ? वो ज्ञानी है ... क्योंकि किसी एक तत्व का नहीं सब तत्व में किसी एक शक्ति का उन्हें बोध है ! सो यें ज्ञान है ... सर्वत्र - सदा परमात्मा दर्शन !! परन्तु अज्ञान को स्वीकारना ही , वस्तुतः ज्ञान की सच्ची स्थिति है , कहना भर नहीँ , भीतर से स्वीकारना । ज्ञान वह बूँद है जो हम पर गिर गई और हमने हल्ला मचा दिया कि हम पूरे भीग गए । जबकि अब भी वर्षा हो रही है और होती रहेगी । अतः वंचित वर्षा अधिक है , दूसरा अज्ञान समुद्र है विशाल , और जिसे हम ज्ञान कहते है वह

भाव कहने चाहिए या नहीँ

भाव छिपाने चाहिये कि नहीं , यें बडी मजेदार बात है , भाव ही है और छिपाने या ना छिपाने का भेद भी ऐसा कैसे होगा ... आसक्त छिपायेगा ! जिसे कब्ज हो वह , कृपण । साफ कहूं तो ! क्युं उसे विश्वास नहीं हुआ अब तक जिसने आज दो छिंटे गिरायें कृपा के , कल भी बरसेगा ! दूसरी बात अब भी उसमें वही है ! मैं का बोध है ... मेरे का बोध है ... यें तो परीक्षा थी कि आसक्ति कहाँ तक रहती है ! मेरी ही कहूँ ... स्पष्ट आदेश है बरसोगें तो कल भी बादल बनोगें और एक दिन आकाश में विलय हो जाओगें ! ना बरसे तो सागर से जैसे सोंखा यहाँ से भी सोंख लेगी वहीं शक्ति ! जब सागर ऊपर उठ गया तो तुम ( बादल ) तो ऊपर ही हो ... यहाँ से सोंख कर नया बनाना या किसी और काली घटा को पुष्ट करना हमारा काम है ! एक बात और पथ पर चल रहे हो वृक्ष मिलें ... फलदार हो ! तो केवल आपके लिये फल नहीं ... आप वहाँ बैठ गये फल छिपा लिये ! छिपा-छिपा के खा रहे हो तो रास्ता तो भुल ही गये ! जीवन भर वहीं फल पकडे रहो ... होना तो यें चाहियें फल तोड लो , बांट दो आगे बढो ... जिसने मार्ग पर फलदार वृक्ष लगाया वो बुला रहा है वरन् कांटे के पथ पर फल के वृक्ष क्यों ? रुकना वहाँ

प्रीत को रोग लीला

प्रीत को रोग लाली , का करे है ? या वन में किस संग बतिया के हँस रही है री ....  ऐ री ..... इन झाड संग ? साँची कहू , लाली तू पगला गई है री , पहले भी कही रानी जु को , लाली ने वैद्य को दिखाय दयो । कबहुँ खग-मृग संग खेलें , कबहुँ गईया संग बोले ? लता-पता सब बात ना करें लाली , यां में का कोई भुत दिखे है तोहे । मैं तो सुनी हूँ तेरो मन करें तब तू रात्रि विश्राम गौशाला में करें है, काहे ? वृषभानु जी को बड़ो महल ना सुहावे तोहे । मखमली सेज छोड़ कबहुँ गौ संग , कबहुँ चन्द्र देख बिताये दे । कोउ पीड़ा है क्या री तोरे हिय में ? कोई गहन रोग .... ??? झाड पात से बतियावे से भलो न होय , कछु सेवा पूजा कर लाली !! और वन में एकली ना विचरा कर , नाहर का जाने तू कौन की बिटिया है ? कोई कोई कहे , तू बड़ी प्रेम मयी है , भेद ना जाने , जनावर हो या झाड सब संग लाड करती रहे ! मैं तोहे समझाऊं ऐसो ना करा करिये । तू तो ऐसो सब संग बोले , सब तोरे ही ख्याल हो । गहन रोग है , तोहे ??? उधर तो सब शब्द उलझ कर कानों में तो गए ,परन्तु अर्थ ना बना सके , सो वह मुस्कुरा दी । अब वह अपने अर्थ ना लगाने की असमर्थता पर खिलखिलाई या इस ब्रजवासी

कृष्ण मथुरा गमन लीला मंजु दीदी

राधे राधे ब्रज गोपियों ने श्री कृष्ण के साथ इतनी गहरी प्रगाढ़ आत्मीयता बाँधी कि कृष्ण प्रेम ही उनका जीवन हो गया।श्री कृष्ण अति नटखट हैं, उन्होंने देखा कि प्रत्येक दृष्टिकोण से विरक्त बेमन की हो जाने के उपरांत भी गोपियों में अभी कण मात्र आसक्ति अभी शेष है, मेरे प्रति। इन्हें मेरी समीपता का 'सुख' पसन्द है, 'सुख' और भक्ति विरक्ति में सुख कैसा ? भगवान को तो भक्त को पूर्णत: विरत करना है।भगवान के महत्व को जानना, उनके रहस्य को समझना अति दुष्कर है। इधर नंदबाबा व मैया यशोदा के लिये भी क्षण मात्र का भी सुत-वियोग असहनीय है, आसक्ति की पराकाष्ठा वात्सल्य का सुख। श्री कृष्ण ने बाबा और मैया से कहा-                  "अब आप अपनी गैया बछड़े सम्हालों, हमें तो मथुरा जाना है, कंस मामा का निमंत्रण आया है। हमने अब तक यहाँ बहुत आनन्द लिया, मन भर भर के आपका दधि माखन खाया"                         मथुरा मगन की बात सुनते ही नंदबाबा और यशोदा मैया व्याकुल और अधीर हो गये, तड़फ कर बोले-                   "नहीं लाडले ये सब तुम्हारा ही है ये गैया, दधि माखन हमारा कुछ नहीं है लाल,सब कु

खेल खेलते बाबा

खेल खेलते बाबा ---- करीब 50 - 60 वर्ष हो गए उन्हें गोलोक में गए । यें ब्रज के एक ख्यातिप्राप्त सन्त थे । मस्त इतने कि बस क्या पूछना कहो चोरों को भी माखन चोर समझ उनके संग खेल लेते । कभी अपने के बन्दी बन जाते , कभी अपने सखा (कान्हा) से रूठ कर ऐसा बैठते कि दिनों तक मानते ही नहीँ । बड़े बड़े भक्त आते , परन्तु वें खेलते ही रहते । यह सृष्टि उनके लिए कर्मजन्य या अज्ञानजन्य नहीँ थी । भगवान की लीलामान ही थी । इस लीला में लिलप्रिय की इच्छा के अनुसार पात्र बने हुए भी एक सखा थे । एक दिन एक प्रसिद्ध राजा से जो कि उनके भक्त थे , उन्होंने कहा - तू राजा बना फिरता है, मुझे भी एक दिन राजा बना दे । राजा साहब बड़े श्रद्धालु थे । उन्हें तो आनन्द मिला , चलो कुछ सेवा तो दी । बाबा को अपनी राजधानी लें गये और तीन दिन के लिए बकायदा उन्हें राज्य का सब अधिकार दे दिया । अब बाबा राजा हो गए । राजा होते ही बाबा ने सारी व्यवस्था उलट पलट कर दी । दीवान को दरबान और दरबान को दीवान बना दिया । रानी को दासी के काम पर लगा दिया । राजकुमार को चाँटे लगवाये । चारोँ और तहलका मच गया । बाबा से ऐसी आशा किसी ने ना की थी । सब लोग जा कर