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भक्ति या भक्त्याभास 1

जय जय श्यामाश्याम । यें लेख कुछ खण्डों में प्रमाणित भावनाओं से है , कोरी कल्पना भर नहीं , जिससे हम भक्ति और "भक्त्याभास" को समझ सकें ।
पुनः एक गम्भीर विषय लेकर आया हूँ , कारण उलाहना नहीँ , अपितु अपनी आत्म स्थिति का अवलोकन करना । स्वयं का । क्योंकि कलिकाल में किंचित् प्रयास , और शीघ्रप्राप्त अनुभूतियों के आधार पर आवश्यक ही है कि क्या सच में भक्ति है अथवा किन्हीं भ्रम में दम्भमय हो अपने ही अहित का पोषण हो रहा है ।
आज हमने भक्ति को सर्व सामान्य मान लिया है । परन्तु भक्ति जैसी रसमयी स्थितियों को बिना जाने हम किन्हीं भी क्रिया कार्य को भक्ति ही समझ लेते है । जिसे भक्ति कहा जाता है वह तो अद्भुत स्थिति है । वहाँ विकल्प नही , संकल्प नहीँ , संसार नहीँ , कुछ है तो प्रियतम् और अपने प्रियतम् से प्रीत बस । अपना होना भी वहाँ स्मरण नहीँ , यहाँ 22 घण्टे संसार और 2 घण्टे किन्हीं आवश्यकता पूर्ति के लिए भगवान को दिए जाने पर भक्त कहलाने का नया चलन ही चल पड़ा है ।
हम गृह धर्मियों के चित् में स्वयं को भक्त कहलाने की इच्छा तो है , परन्तु ऐसा कुछ किया नहीं , जिससे हम भक्त कहलाये । जब चाह तब भोग-विलास , संसार और जब मन हुआ तब भगवत् मन्दिर । "भक्ति" और भक्त्याभास को समझना जरूरी है । जिसे एक बार में कह पाना कठिन है । किन्हीं भावनाओं को ठेस नहीँ पहुचाना बस यथार्थ की बात कर अपनी उन्नति के पथ को कहना है । क्योंकि अधिकत्तर आज के समय भक्ति देखने कहने में आती है , यहाँ फेसबुक बुक पर भक्तों के नाम से ग्रुप भी है , जिनमे लाखों तक भक्त है । कई समितियां शहर , गाँव , मोहल्ले में होती है । जैसे - "कृष्ण भक्त परिवार" । आदि ऐसे सुंदर नाम की संस्थाएं ।
आइये आत्म शोधन करें और परम् पावनी वैष्णव सन्त भक्ति को जान हम माने कि हम भक्त कहलाने के  कण भर भाव से भी परिचित नहीँ , कारण हमें दोनों ही हाथ में लड्डू चाहिए , एक भगवान भी और संसार भी । हम भगवान के कहलाना तो चाहते है परन्तु भगवान की ओर जाते पथ के लिए संसार नहीँ छोड़ सकते । अतः संसार की ओर खड़े हो भगवत् पथ को नमन कर ही लौट आते है , और संग लाते है भक्त की पदवीं । संसार को जताते है कि हम भगवान के पर्शनल एसिस्टेंट जैसे ही हो गए है । इधर तो बड़ी इज़्ज़त - सम्मान बढ़ने लगता है , परन्तु उधर धोखा किससे किया हमने ? ...... स्वयं से । संसारिक प्रतिष्ठा में कुछ छुटा तो वो भगवत् प्रेम । उनका प्रेम । उनका संग । और मिल ही गया तब बात अद्भुत है ।
एक है शुद्ध भक्ति , आज हर वस्तु की पहचान के लिए शुद्ध शब्द कहना होता है , कारण मिलावट । और एक है "भक्त्याभास" ।
रसिक-सन्त , भगवत्-प्रेमी इन सन्दर्भ को समझते है और वहाँ भावनाएं भक्ति में चाह कर भी बाधित नहीँ होती , कारण शुद्ध भक्ति में निरंतरता , अनन्यता है । तेल की धार जैसी,  टूटती नहीँ , भगवत् रूप के पान में पूर्ण रस है जिसे भक्ति हो ही जाएं वहाँ अविरल अनन्यता चित् से रहती है । देह भौतिकता में भी हो , संसारिक धर्म में भी हो तब भी अनन्यता बनी रहती है । यहाँ अन्तस् की प्यास और कहीँ से बुझ नहीँ सकती , दूसरा कोई विकल्प ही नहीँ । वहाँ कुछ है तो केवल आराध्य । शेष कुछ नहीँ , जो भी है , या जिसके होने का आभास भी है , वहाँ भी केवल अपने आराध्य । अगर कभी भक्ति , कभी संसार में चित् लगता है तब वहाँ अनन्यता नहीँ । वहाँ विकल्प है , अतः यहाँ भक्ति नहीँ "भक्त्याभास" है , भक्ति का आभास । जिसके बहुत लाभ भी है , और कुछ नुकसान भी । बड़ा नुकसान तो यें ही है कि शुद्ध भक्ति रस वंचित रह जाता है ।
" भक्त्याभास " दो प्रकार का है - प्रतिबिम्बस्तथा छाया रत्याभासो द्विधा मतः ।
1 प्रतिबिंब भक्त्याभास
2 छाया भक्त्याभास

इनका और इनसे पहले अगले अंक में भक्ति का भी विचार करेंगे । जय जय श्यामाश्याम ।।।

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