सखी ! आज कैसे करुँ सेवा ......
सखी
प्रियतम् आ रहे है
उर- चित् पदचाप सुन
थिर थिर झूम रहे है
आज कैसे सेवा करुँ ??
सखी प्रियतम् की .....
वस्तु अपनी तो सेवा हो
समस्त अंग आवरण उनके
उनकी ही सेवा वस्तु को धरे हूँ
कल उन सन्मुख
गिरे जब दो अश्रु कण
हाय ! अनुचित समय हुआ यूँ
पिय को भाया ना
यूँ उन सन्मुख ....
नव नयन नैया में जल छलकना
कह उठे .... मेरी सेवा !
किञ्चित् कहाँ था शेष
..... सर्व वस्तु आपकी ! नाथ
नहीँ सर्व तो नहीँ
अब भी है शेष विशेष
हाय ! अब क्या है यूँ मुझमेँ मेरा
ऐसा क्या जो छिपा था गहरा
कपट चाहे न छूटे पिया
थी , हूँ सदा निष्ठुर
आदेश पिया का !
कह दीजिये सेवा उपचार
जो अब भी न हुआ
पातक मेरा तैयार
अश्रु है अब भी शेष
गिरते रहते प्रति निमेष
तन मन हुआ जब मेरा
कैसे हुए स्फटिक बिंदु
यहाँ झरते नित नव देश
दे दो अपनी धारा भी
झरे जब चाहूँ तो ही
दिए नाथ आपको अवशेष
अब कुछ नहीँ मुझमेँ भेश
सब हुआ तुम्हारा
सब में तुम
तब भी आता अंधड़
जब जाते तुम
देखो अब न आँखों में अश्रु है
सम्भालो पिया सब आपकी वस्तु है
..... सखी ! यूँ अब वो आये है
सेवा थाल ना अब सजाये है
तन मन चाहे स्वीकृति
वाणी उनकी अनुगामिनि रहती
आज पूछूँगी उनसे असहज
कहो न अब कैसे हो सेवा ?
मन वाणी गए परदेस ....
--- सत्यजीत तृषित
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