खेल खेलते बाबा ----
करीब 50 - 60 वर्ष हो गए उन्हें गोलोक में गए । यें ब्रज के एक ख्यातिप्राप्त सन्त थे । मस्त इतने कि बस क्या पूछना कहो चोरों को भी माखन चोर समझ उनके संग खेल लेते । कभी अपने के बन्दी बन जाते , कभी अपने सखा (कान्हा) से रूठ कर ऐसा बैठते कि दिनों तक मानते ही नहीँ । बड़े बड़े भक्त आते , परन्तु वें खेलते ही रहते । यह सृष्टि उनके लिए कर्मजन्य या अज्ञानजन्य नहीँ थी । भगवान की लीलामान ही थी । इस लीला में लिलप्रिय की इच्छा के अनुसार पात्र बने हुए भी एक सखा थे ।
एक दिन एक प्रसिद्ध राजा से जो कि उनके भक्त थे , उन्होंने कहा - तू राजा बना फिरता है, मुझे भी एक दिन राजा बना दे । राजा साहब बड़े श्रद्धालु थे । उन्हें तो आनन्द मिला , चलो कुछ सेवा तो दी । बाबा को अपनी राजधानी लें गये और तीन दिन के लिए बकायदा उन्हें राज्य का सब अधिकार दे दिया । अब बाबा राजा हो गए ।
राजा होते ही बाबा ने सारी व्यवस्था उलट पलट कर दी । दीवान को दरबान और दरबान को दीवान बना दिया । रानी को दासी के काम पर लगा दिया । राजकुमार को चाँटे लगवाये । चारोँ और तहलका मच गया । बाबा से ऐसी आशा किसी ने ना की थी । सब लोग जा कर राजा साहब से शिक़ायत करते परन्तु उसका कोई फल भी नहीँ था । राजा साहब अपने गुरु जी के लिए कहते - भाई शांत रहो , वें बड़े महात्मा है , ना जाने किस उद्देश्य से ऐसा करते हो । उनकी श्रद्धा ज्यों की त्यों रही । तीसरे दिन सब उन्होंने राजा को सम्भला दिया ।
राजा ने बड़ी नम्रता से पूछा - बाबा , यह सब किस अभिप्राय से आपने किया । महात्मा बोले - तुम्हारा राज्य तो दुर्व्यवस्था का केंद्र हो गया था । दीवान चाकर - दरबानों को बईमान समझते और चाकर दीवान को जल्लाद । किसी की व्यथा , समस्या किसी को पता ना थी । इसी से परस्पर उनमें वैमनस्य था । राजकुमार को लोगों को पिटवाने में सुख मिलता , उसे पिटाई खाने का अनुभव नहीँ था । रानी दासियों को सजा देती , तीखा बात करती , दासियाँ बड़ी परेशान थी , रानी को भी दासी की स्थितियों का ज्ञान ना था । सो सोचा खैल खेलूँ , तुम्हारे परिजनों से दोष भी चला जायेगा और खेल तो होगा ही । इसलिए सब करना पड़ा । अब , तुम अपना राज्य सम्भालो । मेरी मस्ती में मेरे माँगें हुई ब्रजवासी की रोटी के टुकड़े में जो सुख है , तुम्हारी राजशाही में नहीँ । फिर भी सब लाला की लीला है तुम खिलौनों से खेलों मैं अपने लाला से । फिर वें ब्रज चले गए ।
महात्मा जी ने यें लीला इसलिए की कि हम अपने सामने वाले की स्थिति परिस्थिति को भी अनुभूत् करें स्वयं को वहाँ रख विचारें । सत्यजीत तृषित । जयजय श्यामाश्याम।
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