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Showing posts from September, 2015

प्रेमी प्रेमास्पद एक देह दो प्राण

प्रेमी छिप नही पाते ढिढोरा वो पिटता है जिससे हुआ है कारण ।।। प्रेम एक करता है । यहां देह कोई भीतर कोई है होता वही है जो वो चाहते है केवल प्रेमी के आगे ईश्वर अपनी चलाते है । संसार के आगे ।।। तथास्तु ।।। जैसा तुम चाहो प्रेमी नहीँ , साधक छिप सकते है प्रेम हुआ एक हुए । अगली स्टेज क्या होगी वो अगला स्टेप होगी हरी का गान । हरी प्रेम का प्रसार । चैतन्य मीरा तुलसी प्रेम रस में लिखे गाये ।।। और हां उसे केवल वही गा सकता है । जिसमे वे उतर जाये । यानी ।।। ईश्वर ही ईश्वर को कह सकते है । गा सकते है । विरह रस बिना युगल प्रेम न हो पायेगा ।।। युगल का विरह आप की धमनियों को चिर कर प्रत्येक रोम से रुदन करता है तब .... हां पर प्रेम फिर भी सस्ती घटना नही । प्रेम सम्भल कर चल रहे जीव को होगा ही नही । प्रेम उसे होगा जो बह जाए प्रेम चाह से नही होता एक दुर्घटना है दुर्घटना इसलिए कि सुघटना होती तो कोई बचता ही नही ।।। ये दुर्घटना आपको खुद से तोड़ किसी अपरिचित में बसा देती है देह कही चित कही ... भीषण वेदना ।।। चित् जहाँ सम्बन्ध वहां ... देह पर चित् नही तो जहाँ चित् गया वही सब भाव प्रे

कन्दर्प केलि-रस

कन्दर्प केलि-रस कमली में लिपटे युगल-रसिले अपनी छबीली छटा से सन्पुर्ण निकुञ्जस्थली को उद्भासित करते , श्वेत बिछौने पर आसीन थे | आज की शोभा और ही थी | घनी-कजरारी घनमाला में से झाँकते-झलकते यह द्वय चन्द्र .... ! .... श्यामल विधुमण्डल अलङ्कृत वह सुगौर सुधाराशि और उस उज्ज्वल सुधाकर से मण्डित वह सुनील चन्द्रमण्डल ! .... स्कन्ध से स्कन्ध और शीश से शीश मिलाए उभय वदन-विधु से छलकती .... छवि-पीयूष-धाराओं का उन्मुक्त प्रवाह ..... ! प्रियतम तनिक हिले  ...... प्रणय मज्जिता किशोरी तनिक चौंकी , पर कुछ बोली नहीं | हाँ , एकबार भोले नयन उठा , प्रियतम की और देखा | रसरंग रँगीले किशोर के अरुणाधर न जाने किस विलास-रस-रहस्य को ले विकसित हुए | अर्द्ध मुकुलित मुस्कान-मण्डित दलद्वय ने अतिलाघव से मधुमयी प्रिया के ... मृदुल-शीतल कपोल की रसार्चना की और फिर वे केलिरस पारंगत ..... सुन्दर किशोर झट सीधे बैठ गए | हाँ , एक बार नयनकोर से प्रिया के वदनविधु पर मदमाती अनगिन भाव लहरियाँ अवलोक , तनिक सरके और किशोर के कपोल से कपोल सटा .... और ... और मुस्कराये ... | इस .... तनिक सी हलचल से कमली ज़रा सरकी | अहा ! मधुरिम छवि की

पद व शायरी

रसिकनी सलोनी प्रिया मंद मंद मुसुकाती प्रिया प्रेम कल्लोनि बहाती प्रफुल्लित जग में बृजराज साँवरे संग कुमुदित वन में श्यामाश्याम दरश प्यासी अंखियाँ श्याम की सताती कटारी अंखियाँ तिरक तिरछ निरुपम अंखियाँ करत टौना होवत गौणा हा श्यामा य री बेरन अँखियाँ रहत मगन इह लोकन में सदा अखियाँ हाय री कानन में कानुडा संग कबहूं उलझी अंखियाँ देखत देखत जाँ छब ने खोउं री निज अँखिया युगल प्रेम रस का बही री कोई रोकत लो मोरी अखियाँ यें तेरे ईश्क़ का जोर तेरी गलियों में खेंचता है मेरा जोर पलकों पर नहीं कद़म कौन चलता है मेरे हमद़म जितनी शिक़ायत जहाँ को मुझसे रही कहीं ज्यादा हर सांस में ईनायतों की बगिया रही यें तेरी मुहब्बत है कि कल भी था और आज भी तेरे बिन इक पल कहाँ गुज़ारुं याद न रहा आज भी गर्दिशें ज़हन्नुम्म में रहे शौक़ से हम ज़रुर मेरे यारों पर क़सम से उन चोटों में बडी यादें अटकी है यारों  कोई था हसीन् आफ़ताब संग सफर में तब यारों दर्द जब गुजरता करीब से वो और करीब रहा तब यारों हैरां मैं उन रातों में भी रहा और आज भी हूँ यारों क्यूं करता है वो क़ातिले मुहब्बत  हर इक बुंद से मेरे यारों सह

पद व शायरी

रसिकनी सलोनी प्रिया मंद मंद मुसुकाती प्रिया प्रेम कल्लोनि बहाती प्रफुल्लित जग में बृजराज साँवरे संग कुमुदित वन में श्यामाश्याम दरश प्यासी अंखियाँ श्याम की सताती कटारी अंखियाँ तिरक तिरछ निरुपम अंखियाँ करत टौना होवत गौणा हा श्यामा य री बेरन अँखियाँ रहत मगन इह लोकन में सदा अखियाँ हाय री कानन में कानुडा संग कबहूं उलझी अंखियाँ देखत देखत जाँ छब ने खोउं री निज अँखिया युगल प्रेम रस का बही री कोई रोकत लो मोरी अखियाँ यें तेरे ईश्क़ का जोर तेरी गलियों में खेंचता है मेरा जोर पलकों पर नहीं कद़म कौन चलता है मेरे हमद़म जितनी शिक़ायत जहाँ को मुझसे रही कहीं ज्यादा हर सांस में ईनायतों की बगिया रही यें तेरी मुहब्बत है कि कल भी था और आज भी तेरे बिन इक पल कहाँ गुज़ारुं याद न रहा आज भी गर्दिशें ज़हन्नुम्म में रहे शौक़ से हम ज़रुर मेरे यारों पर क़सम से उन चोटों में बडी यादें अटकी है यारों  कोई था हसीन् आफ़ताब संग सफर में तब यारों दर्द जब गुजरता करीब से वो और करीब रहा तब यारों हैरां मैं उन रातों में भी रहा और आज भी हूँ यारों क्यूं करता है वो क़ातिले मुहब्बत  हर इक बुंद से मेरे यारों सह

काहे क्षमा करे हो

काहे क्षमा करे हो सकल अपराध मोरे गहवर के वानर संग लटकाय दो मोहे या बनाय दो शाप देत शिला ही छुटत न छुटत काम कामना ही बैठ जाओ मो पर के धरो नित आवत ही लात चार प्रेम से ना मानूं तो सहज करो दुत्कार पर तन से ना निकालो मोहे मन से ना बिसारो मोहे लाड से ना राखो मोहे दुत्कार से ही छुओ मोहे

विरह Shayri

मिलन से पहले वो साँची पीर की गुरेज़ है संगेमरमर से नही कँटीली पथदण्डी की तलब है यूँ सस्ते में भी मिले रब तो क्या रब रहा वो कुछ यूँ मिले की न सिसकियां थमे न आहे रुके तू कोहिनूर है मेरे हमदम सांवरे पर क्या पत्थरोँ की भी मैंने क़द्र की कभी कुछ यूँ मिलना की हर पत्थर में मोती दमके कुछ यूँ मिलना की हर बुंद अश्क की सितारों सी दमके जब तक यें आँखे पानी ही गिराती रहे मिल कर भी न पहचानना ना नींद ताउम्र गर आती रहे मिलना अपने तमाम दिल वालो से किसी एक को भुला जाना फिर सदियों के लिए जब तलक हर रोम रोम से तुझे तेरा नाम न सुनाई दे ना पलटना कभी उन मैली हसरतो की तरफ गर हुआ जो तलब ऐ इश्क़ दीदार का तब कुबुलन सबाब ऐ रहम इंतज़ार का इस दफा कुछ ऐसे मिल कि रूह तन उधेड़ कर गले जा मिले मेरी मुहब्बत गर मेरे यार की पाकशाही को सस्ता करती है तो आशिक नही गुनेहगार करार कर सजा ऐ जहन्नुम बख्शो अभी तो दीदारे हुज़ूर शुरू ही हुआ है आशिक़ी कहाँ अभी तो सलाम ही हुआ है इनायतें ही है कि उनके चाहने वालो से दो बात हो जाती है वरना हम पत्थर पिटते पिटते पत्थर ही हो चले है मुझे शिक़वा ग़र कुछ है तो बस इतना काश ज़रा भ

किंकरी मंजरी सहचरी

किंकरी मंजरी सहचरी दासी अपनो बनाय लो री मोहे सखियन की सखी की ख्वासी ही बनाय लो री नित अपराध करत फिरूं निकुंज लता से मोहे बंधाय दियो री

निकुंज प्रेम रस गली अति सांकरी

निकुंज प्रेम रस गली अति सांकरी नित नित कछु सरको जाये चित् भागत फिरे जग माये युगल पद प्रेम सु याने लगाये ठिठौली करत जीवन खोय ही दियो क्षण निमिष प्रेम सांचों चाखो जाये तृषित रहत नित प्यासो युगल को युगल अरज दरस बिन दरपण ही न सुहाय

भाव पद

बांवरी बनुं ऐसी कि सामने हो पिया तो हो जाऊं मुर्छित गहरी ऐसो कृपा रस दे प्रिया जी ना सुध तन की रहत बने न मन काहे तनिक कहीं लगे न धन युगल बिन कछु मेरो बने चुनरी बिखरी नैना उधडे होठ थिथरे अंग अंग कम्प सा उठता रहे आह या वाह युगल बिन ना कछु चाह निकुंज प्रेम रस गली अति सांकरी नित नित कछु सरको जाये चित् भागत फिरे जग माये युगल पद प्रेम सु याने लगाये ठिठौली करत जीवन खोय ही दियो क्षण निमिष प्रेम सांचों चाखो जाये तृषित रहत नित प्यासो युगल को युगल अरज दरस बिन दरपण ही न सुहाय रस जो पीनो है सुक सो होई जा सुक की सुनी ले सुक संग प्रेम लता पर बैठी जा । रस पीनो को मानस कर स्वरूप एक से दुई लियो दुई रस को पिबत पिबत निज युगल भाव की रस हेत नन्दनन्दन सुक भी भयो । सत्यजीत तृषित ऐसो का करम होये पिया संग बातां होये ऐसो नेक कोई जोग मैं न जानूं आस मोरी पीया की कृपा को बस मानूं मेरो बल जल प्यास न बुझावे है नित रस प्रेम पिलावे ऐसो साहस न होवे है ।।। तृषित ।।। ना जानू नेह सांचो ना मानू देह काचो करत रहूँ भटकत रहूँ तोपे का आस करूँ मेरो बल ही कहत रहूँ न छुटत देह सो नातो न टूट

पीर ऐसी उठाय जाये पीया रे

पीर ऐसी उठ जाये पिया रे तोरे बिन न दर्द और सुहाय तोरा नाम ही औषध हो जाय जीवत जीवत मरुं नित क्षण मरत मरत जीयुं क्षण क्षण कहत कहत ठहर अधर करत कम्पन न कहत कहत बस कहत रहूं मोरा निज धन

कैसो बांवरो कर

हाय सखी री !! कैसो बांवरो कर छोडिग्यो कैसो घायल तन मन कर भुलाय दियो कैसो अपनो कर लिपटायो तुने कैसो तुने नैनन फिराय लियो कैसौ अंग रंग भरत प्रेम को कैसो विरह नाद सुनाय दियो

हाय सखी वल्लभ

कैसे कहूं सखी ... मेरो मन बसत राधावल्लभ लाल है हाय ! देखन से ही सबहूं खो जाय है नैनन में डुबन लागुं निकलत ना जाय है बेरी शरमाय परदो गिराय जिवत मरत भी न जाय है पूनी संभलू फिर आय फिर भीतर ही धंस जाय है हाय पग पखारूं तनिक पग सरकाय है कैसे पकडूं नागिन सो बल खाय है मर जाऊं जा दिन तनिक बुलावो कहाय दिजो जैसे आये पिया कानन में कहाय दिजो जीवन छुडायो है पिया मरनो भी भुलायेगो बिन लपटाये मोहे कहां वल्लभ मुस्कुआवेगो

राधा पद

श्यामाश्याम दरश प्यासी अंखियाँ श्याम की सताती कटारी अंखियाँ तिरक तिरछ निरुपम श्यामा अंखियाँ करत टौना होवत गौणा हाय री बेरन अँखियाँ रहत मगन इह लोकन में सदा अखियाँ हाय री कानन में कानुडा संग कबहूं उलझी अंखियाँ देखत देखत जाँ छब ने खोउं री निज अँखिया युगल प्रेम रस का बही री कोई रोकत लो मोरी अखियाँ श्यामाश्याम दरश प्यासी अंखियाँ श्याम की सताती कटारी अंखियाँ तिरक तिरछ निरुपम श्यामा अंखियाँ करत टौना होवत गौणा हाय री बेरन अँखियाँ रहत मगन इह लोकन में सदा अखियाँ हाय री कानन में कानुडा संग कबहूं उलझी अंखियाँ देखत देखत जाँ छब ने खोउं री निज अँखिया युगल प्रेम रस का बही री कोई रोकत लो मोरी अखियाँ रसिकनी सलोनी प्रिया मंद मंद मुसुकाती प्रिया प्रेम कल्लोनि बहाती प्रफुल्लित जग में बृजराज साँवरे संग कुमुदित वन में पिया संग चली अब मैं सखी मोहे भावे न बचपन की गली पिया संग ... ईश्क़ में चूर लाशे नहीं होती मर कर बरसों में सजी सांसे न होती यें तेरे ईश्क़ का जोर तेरी गलियों में खेंचता है मेरा जोर पलकों पर नहीं कद़म कौन चलता है मेरे हमद़म जितनी शिक़ायत जहाँ को मुझसे रही कहीं ज्यादा ह

प्रश्न और रामसुखदास महाराज जी

राधे राधे..  "गीताप्रेस गोरखपुर परिवार" के ओर से आज का सत्संग : दिनांक : 17-09-2015 🌷🌷      बहुत-से सज्जन मन में शंका उत्पन्न कर इस प्रकार के प्रश्न करते हैं कि दो प्यारे मित्र जैसे आपस में मिलते हैं क्या इसी प्रकार इस कलिकाल में भी भगवान् के प्रत्यक्ष दर्शन मिल सकते हैं ? यदि सम्भव है तो ऐसा कौन-सा उपाय है कि जिससे हम उस मनोमोहिनी मूर्ति का शीघ्र ही दर्शन कर सकें ? साथ ही यह भी जानना चाहते हैं, क्या वर्तमान काल में ऐसा कोई पुरुष संसार में है जिसको उपर्युक्त प्रकार से भगवान् मिले हों ? वास्तव में तो इन तीनों प्रश्नों का उत्तर वे ही महान पुरुष दे सकते हैं जिनको भगवान् की उस मनोमोहिनी मूर्ति साक्षात् दर्शन हुआ हो | यद्यपि मैं एक साधारण व्यक्ति हूँ तथापि परमात्मा की और महान पुरुषों की दया से केवल अपने मनोविनोदार्थ तीनों प्रश्नों के सम्बन्ध में क्रमशः कुछ लिखने का साहस कर रहा हूँ | (१) जिस तरह सत्ययुगादि में ध्रुव, प्रह्लादादि को साक्षात् दर्शन होने के प्रमाण मिलते हैं उसी तरह कलियुग में भी सूरदास, तुलसीदासादि बहुत-से भक्तों को प्रत्यक्ष दर्शन होने का इतिहास मिलता है; बल्