"अथ संगीतप्रसराभिज्ञा "भाग -2 "गावति लालन संग नवल नागरी। संगीत सुघर सुर सरस सप्त लेत सुन्दरि ताल सचित लालन कहत गुननि आगरी।। रीझि सुबस भये रसिक बिहारी बिहारिनि रंग रंगे रस रागरी। जस गावत सचु पावति दासि बिहारिनि राजत चिर चिर अनुराग सुहागरी।।" आलि री...अलिन संग पियप्यारि मधुकर हित मधुमय मधुर वाणि से लिप्त अति मधुर राग अनुराग भरे सुरत स्वरों में भीने रसरंगालाप रहीं हैं...अहा... ... ... जैसे अनंत अनंत रागनियाँ रससहचरियाँ बन प्यारी जु के कोमल सुकोमल चरणनखों में विराजित उन्हें स्पंदित कर रहीं हैं...और क्षणिक इस स्पंदन से रस बढ़ते बढ़ते उनके हिय में प्रवेश कर...हियपिय की सुषुप्त हिय रसतरंगों को मधुर स्पर्श दे रहा है...और नयनों से बहते हुए ब्यार में महक उठा...अहा...अति गहन...अति मधुर...सुधि बिसार पियप्यारि अपने हियपिय को मधुर वाणि से रसपान करा रहीं हैं...और हियवसित प्रियतम तो प्यारी जु की इस मधुरिम मृदुल ग्रीवा से झर रहे...अधरों से बहते...हिय में उतर रहे वाणि श्रृंगार पर कोटि कोटि बलिहार जाते ना अघाते...प्रियतमा की मुखाकृति और उस पर सजे ये रसीले अतिमधुर रस में भीगे रस