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Showing posts from January, 2018

विदग्धमाधवे प्यारी 1 , संगिनी जू

*विदग्धमाधवे* "गुन की बात राधे तेरे आगे को जानैं जो जान सो कछु उनहारि। नृत्य गीत ताल भदेनि के विभदे जानें कहूँ जिते किते देखे झारि।। तत्व सुद्ध स्वरूप रेख परमान जे विज्ञ सुघर ते पचे भारि। श्रीहरिदास के स्वामी स्यामा कुंजबिहारी नैंक तुम्हारी प्रकृति के अगं अगं और गुनी परे हारि।।" अतिरस निपुणा कौशला श्यामा जु रतिनेह से सम्पूर्णतः रचीपची अनंत गुणों की स्वामिनी व सुशीला करूणाशीला हैं...प्राणप्रियतम की हियमणि...संजीवनी...प्राणपोषिणी...प्रियतम के निश्चल प्रेम में पगी सर्वरसों से परे अतीव रसाधिष्ठातरी हैं जो सर्वगुणों को धारण ही करतीं हैं प्रियतम सुख हेतु...अहा... सखी री...सौंदर्य की अभूतपूर्व सुखराशि श्रीश्यामा जू प्रियतम व सखियों को अपने अनंत गुणों से...गुणवत्ता से चिरकाल से चिरकाल तक मोहित किए रहतीं हैं...विदग्धा श्रीश्यामा जू पति रति मन हरिनी रासविलासिनी हैं जिन्होंने प्रेमावेश में नील निचोल धारण कर रखा है...वे प्यारी सुकुमारी वृष्भानू दुलारी अपनी चारु चन्द्रिका के रस में प्रियतम को सदा भिगोए हुए रहती हैं...प्रियतम श्यामसुंदर ही उनके ललाट पर मुकुट सम विराजित रहते हैं और वह

विदग्धमाधवे प्यारी 2, संगिनी जू

"राधे चलि री हरी बोलत कोकिला अलापत सुर देत पंछी राग बन्यौ। जहाँ मोर काछ बाँधै नृत्य करत मेघ मदृंग बजावत बंधान गन्यौ।। प्रकृति के कोऊ नाहिं यातें सुरति के उनमान गहि हौं आई मैं जन्यौ। श्रीहरिदास के स्वामी स्यामा कुंजबिहारी की अटपटी बानि औरै कहत कछु औरै भन्यौ।।" "विदग्धमाधवे" विदग्ध...आखिर कैसे प्राणसंजीवनी प्यारी दुलारी श्यामा जु विकल विदग्ध हो सकतीं हैं जबकि वे तो सदा प्रियहियमणि बन सुसज्जित हैं प्राणप्रियतम के कंठहार की कोस्तुभमणि सम और इससे भी गहन कहूँ तो जैसे अंगराग कस्तूरी का रंग एक हो जाए घुल कर तो भला इन्हें भिन्न कौन कह सकता ना... अरी भोरि...प्रियहियमणि प्रियतम की प्राणा हैं...नित्य संगिनी...संजीवनी हैं और प्रियतम कबहूं प्यारी के केश तो कभी केशराशि पर सुसज्जित पुष्प आभूषणों पर भ्रमर सम सदैव मंडराते और कभी उनकी ललाटबेंदी पर विराजमान हो उनके प्रकाश को स्वयं में भर लेते तो कभी कपोल और चिबुक का काला तिल बन सज बैठते...प्यारी के नयनों का काजल तो कभी अधरों पर लालित्य सम सुधापान हेतु लालायित होते...मृदुल भाषी प्यारी के मुख से निर्झरित रसीली वाणी की मिसरी सी मिठा

आमंत्रण , बाँवरी जू

*आमंत्रण* प्रियतम रसराज रसिक शेखर ने अपना वेणु नाद छेड़ दिया है। प्रियतम के हृदय की रस तृषाएँ, रस लालसाएं । आह !! वेणु रव में पिरो दी हों जैसे। अधरसुधा का वह आमंत्रण !! स्वतः ही प्यारी के हृदय को स्पंदित कर गया। जैसे ही एक एक रव प्यारी जु के कर्णपुटों से भीतर हुआ, रस राज की वह सभी मधुर चेष्ठाएं। प्यारी कोमला सुमधुर वल्लभा तो रसराज रसिक नागर की सभी चेष्ठाएं जानती ही है, परन्तु आज यह वेणु में भरा है आमंत्रण। प्यारे के हृदय से होकर अधरों से झरता हुआ यह आमंत्रण , अपनी मनोरमा तक । आह !! रसराज का यह सुमधुर *आमंत्रण* *आमंत्रण* प्रियतम के इस आमंत्रण से ही उन्मादित हुई जा रही उनकी नवल किशोरी प्रियतमा। हृदय का आमंत्रण स्वीकार हुआ हृदय से। आह !! व्याकुल हुई दौड़ती जा रही है । ऐसी व्याकुलता कि यह आमंत्रण इसी क्षण हेतु है। प्रियतम की पुकार प्रियतमा को आह्लादित कर रही। आह्लाद क्यों , प्रियतम का सम्पूर्ण आह्लाद नवल नागरी प्रियतमा ही तो है। यह सम्पूर्ण प्रेम आह्लाद प्रियतम को समर्पित करने हेतु उन्मादित। सर्व समर्पण को व्याकुल ,अपने प्रियतम रसराज रसिक शेखर की प्रत्येक रस लालसा को पूर्ण करने का आह्लाद।

प्रीतवर्षण चातकी , संगिनी जू

"प्यारी जू तेरी आँखिन में हौं अपनपौ देखत हौं ऐसे तुम देखति हौ किधौं नाहीं। हौं तोसौं कहौं प्यारे आँखि मूँदि रहौं तौ लाल निकसि कहाँ जाहीं।। मोकौं निकसिवे कौं ठौर बतावौ साँची कहौ बलि जाऊँ लागौं पाँहीं। श्रीहरिदास के स्वामी स्यामा तुमहिं देख्यौ चाहत और सुख लागत काहीं।।" आँखमिचोली कौ खेल तो जानौ हो ना सखी...अहा...खूब खेली होवैगी ना...नयन पर काली पट्टी बाँधे सब सखिन के छुप जावै के तांई और फिर पट्टी खोल कर सबको तलाशने में खुद को भूल जानो परै है...है ना...पर जे खेल तू कबहूँ अपने से ना खेली री... हाँ...स्वै से ना खेली ना...नयन मूँद स्वयं से जे खेल खेलनो अद्भुत होवे री...अहा !! विनीतहृदया विनीता श्रीश्यामा जु कब तें निहार रहीं चित्तचोर श्यामसुंदर कू कि सन्मुख बैठे बंसी बजाए रहे...अधर धर...नयन मूँद कर...मुग्ध...जाने खुद को खोए रहै जां पाए रहै पर तनिक दृष्टि मुरली पर परि तो मृदु अधर सुधा से हो रहे रसपान पर प्यारी कौ हियकंवल खिल उठह्यौ...हाय...नयन मुँद गए री...प्यारी के चंचल अनियारे नयन...मुँदे मुँदे अंतर्मुखी हुए तो जानै है सखी री...बहिर्मुख आँखमिचोली कौ खेल तो विस्मृत है गयौ और अ

विनीता प्यारी विनीता जू , संगिनी जू

"चलौ सखी कुंजबिहारी सौं चित दै मिलि देखैं उनकी भाँवती। सुंदर सौं सुंदरि मिलि खेलत कैसैं धौं गाँवती।। औचक आइ परी सखी तहाँ पिय पै पाँइ चँपाँवती। श्रीहरिदास के स्वामी स्यामा सौं पौढ़ी तन मन राँवती।।" अहा री...जे रंगीली जू की रसीली सखियाँ...हाय...किंचित प्यारी कौ प्यारे के नयनों से निहारैं हैं री...अहा... जानै है सखी...जे प्यारी जू की विनीत करुनाभरी निगाहें जब पियहिय पर गिरें हैं ना री तो प्यारे के नयनों में नयनाभिराम प्यारी जू की सरसीली अद्भुत झाँकी बनै है जांकि निहारन की निहारन से सखियाँ स्यामसुंदर के हिय की बात पढ़ लेवैं हैं जो वास्तव में प्यारी कौ मन की बात ही ह्वै री...बाँच देवैं मधुर संगीत लहरियों में... किंचित पेचीदा लागै ना जे विनीतहृदया प्यारी दुलारी श्यामा जु की प्यारी अनियारी नयनों की नयनाभिराम रसझाँकियों की सिरमौर सखियन कौ हिय...हाय...तनिक सरल कर कहूँ तो प्यारी कौ हिय में का जे सखियन सौं बेहतर कौ न जानैं री और जे सखियन के हिय की रसलालसा सेवापिपासा स्यामसुंदर ही जानै सो सगरी लीला जांके तांई जांके हिय सौं ही निखरै सुलगै और परिपूर्ण होवै री और प्यारी सुकुमारी तो अत

विनीता प्यारी , प्यारी जू

"दूलहु दुलहिनि दिन दुलराऊँ। कुमकुम मुख माँडों मँड़वातर नवल निकुंज बसाऊँ।। बिबिध बरन गुहि सुरंग सेहरे रसिकनि सीस बँधाऊँ। कोमल पीठ दीठि करि ईठनि डीठि मिलै बैठाऊँ।। पानि परसि हँसि बचननि रुचि अंचल चंचलहिं गहाऊँ। *परम नरम रस रीति प्रिया जू की प्रीति निरंतर गाऊँ।।* उत्कंठित जाचित जुवतिन हित केलि बेलि बरषाऊँ। श्रीबिहिरिनिदासि हरिदासी के संग देखि दुहुँनि सचु पाऊँ।।" हा श्यामा हा राधिका श्यामसुंदर हियप्रकाशिनी प्यारी जू अह्लादिनि...ह् किशोरी... ... ... सखी...अनंत उपमाएँ...अहा...पर सब अधूरी सी...क्या कर कैसे निहारूं...कैसे खोजते खोजते पा जाऊँ...डूब जाऊँ उन करुणानिधि उदार विनीत रसशिरोमनि की अति तत्सुखमयी भावलहरियों में जो संगीत संग महकती भी हैं तो अनंत अनंत मधुर रसस्कित अधरों पर रागिनियाँ और हियकंवलों से मकरंद स्वतः झरने लगता है री...अहा !! री सखी...ममतामयी शिशुअधरसुधा विलासिनी विनीत माँ के स्तनों का स्पंदन ही जानता है कि शिशु को कब कितनी क्षुधा है...हाँ सखी री...नेह भरा हृदय ही जानें कि अधरों को कितनी प्यास है...और सखी ये दामिनी जो प्रेमपगी कौंध उठती है अह्लाद से यही जानें कि