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भाव कहने चाहिए या नहीँ

भाव छिपाने चाहिये कि नहीं , यें बडी मजेदार बात है , भाव ही है और छिपाने या ना छिपाने का भेद भी ऐसा कैसे होगा ... आसक्त छिपायेगा ! जिसे कब्ज हो वह , कृपण । साफ कहूं तो ! क्युं उसे विश्वास नहीं हुआ अब तक जिसने आज दो छिंटे गिरायें कृपा के , कल भी बरसेगा ! दूसरी बात अब भी उसमें वही है ! मैं का बोध है ...
मेरे का बोध है ... यें तो परीक्षा थी कि आसक्ति कहाँ तक रहती है ! मेरी ही कहूँ ... स्पष्ट आदेश है बरसोगें तो कल भी बादल बनोगें और एक दिन आकाश में विलय हो जाओगें ! ना बरसे तो सागर से जैसे सोंखा यहाँ से भी सोंख लेगी वहीं शक्ति ! जब सागर ऊपर उठ गया तो तुम (बादल) तो ऊपर ही हो ... यहाँ से सोंख कर नया बनाना या किसी और काली घटा को पुष्ट करना हमारा काम है ! एक बात और पथ पर चल रहे हो वृक्ष मिलें ... फलदार हो ! तो केवल आपके लिये फल नहीं ... आप वहाँ बैठ गये फल छिपा लिये ! छिपा-छिपा के खा रहे हो तो रास्ता तो भुल ही गये ! जीवन भर वहीं फल पकडे रहो ...
होना तो यें चाहियें फल तोड लो , बांट दो आगे बढो ... जिसने मार्ग पर फलदार वृक्ष लगाया वो बुला रहा है वरन् कांटे के पथ पर फल के वृक्ष क्यों ?
रुकना वहाँ है जहाँ लगें कि यहीं लक्ष्य था बस हो गया ...
देखिये जितने लोग छिपा रहे है दरसल उनकी निजि अनुभुति है ही नहीं , बिल्कुल नहीं केवल किताबी रटटे है ... जिसे वें पुछने पर भी किसी पिपासु या जिज्ञासु से ना कहेंगें ... पर सामान्य सामने बैठी घडी ताकती , सोती हुई जनता को कह कर सिद्ध करेंगें कि हम कितने उदार है ...
बहुत गहराई से बात हो तो सत्संग जितना गहराई , एकांत में ले गया सही है ...
भावराज्य में जिन्हें कुंज की झलक मिली वो वहीं रुके है ... जिन्हें निकुंज की सेवा मिली वें वहीं है ...
आगे जब बढेंगें ना जब इस रस को किसी और को चखायेंगें फिर लगेगा कि अब और गहरा उतरुं ...
निकुंज से आगे है निभृत निकुंज जहाँ श्यामाश्याम युगल सरकार ही है और कोई नहीं बस मंजरी , किंकरी ही श्री कृपा से ! ...
हरिदास जी महाराज जी ने उसी निभृत निकुंज लीला में प्रत्यक्ष एकात्मा एकाकीकार हुये ... एक प्राण और देह हुये युगल सरकार के दर्शन शिष्यों को दिव्य दृष्टि देकर करवायें ! ऐसे दर्शन जिसे कर के शिष्य एक बार तो बेसुध हो बाहर आ गये ! इतना माधुर्य मय प्रकाश सहन ना हुआ ! फिर पुन: सम्भल कर प्रत्यक्ष जा कर यें महसुस कर कि साक्षात् है ... स्वप्न नहीं पुन: दर्शन निहारें !
यें सबसे गुप्त है ... यें तक प्रकट है फिर वहीं साक्षात् दर्शन बिहारी हो कर प्रकट हुये ! वें भी सामने है ... जहाँ प्रियाप्रितम एक है ! क्या यें गुप्त दर्शन नहीं ... इन्हीं विग्रह दर्शन को कृपा से साक्षात् पा लिया जायें और फिर पूरी तरह ध्यान किया जायें उस परम् स्थिति को भी कहा जा सकता है !
रहस्य मानव कह पाता तो अभी परमात्मा पिंजरे में बंद रखता ... पहुंच जाता वहाँ तक !
रहस्य प्रकृति गत् है ! रहस्य उतना ही सामने है जितना होना है ... उतना ही कहा जा सकता है जितना सम्भव है ! छोटे बालक को मिर्च खिलाने से पहले कहो चिल्लाना मत ! या रबडी - शहद खिला कर कहो कहना मत मीठी है तो सम्भव है क्या ?
हो सकता है किसी को लगे कि हम बडे हो गये ... पर किसी परम् सत्ता को हमारी हर हरकत बचकानी लगती है ! दो मक्खी आपस में बात करें तो शायद हम सिरियस ना लें ! इतने छोटे जीव से हमारा केवल दंड का रिश्ता है ! पर परमात्मा अगर जीव के किसी क्रिया को सिरियस लें तो यें करुणा है उनकी !! ...
देखिये हल्ला बहुत है ... कि मैं पा चुका हूं ... या मैं ही हूँ ! या मैं भाव में हूँ पर कहूंगाँ नहीं !!! पर वहाँ सत्य में सत्य का दर्शन हुआ ही नहीं !
मैं मान ही नहीं सकता कि किसी में परम् पारलौकिक शक्ति उतरे और वो चुपचाप गटक जाये ... ईश्वर और शरबत में फर्क है ! थोडी महक तो शरबत भी छोडता ही है ! बुद्ध - महावीर - चैतन्य - तुलसीदास कह सकते है तो क्या भाव ना कहने वाले कोई परम् तत्व से भी परम् है क्या मित्र ?
हाँ बहुत से डुब गये पर निकले नहीं बाहर ... बहुत से गुप्त संत - साधक है जो डुबे है पर वें भी जब भी निकले ... या निकलेंगें कहेंगें !
यहाँ तो आज हम दो मिनट की डुबकी ना सह सके ... और बाहर है कोई बाहर है तो इसलिये कि उस रस को कह दें ! हल्का हो शुन्य हो और पुन: डुबे !!
बाई सा जब गहराई के तथ्य पद में लिख गई ! पगली सी वृन्दावन में रही तो वैसा पागल दूसरा तो हममें किसी ने नहीं देखा ! आज 500वर्ष बाद भी किसी राजपुत राजपरिवार या कुलिन परिवार की विवाहिता घुंघट के बाहर ना आयेगी ! तो बाई सा तो मेवाड जो की सबसे बडा घराना है वहाँ की वधु हो ... लोक लाज हटा ... बहुत कुछ कह गई !! ना कहती भीतर रखती तो .....
वस्तुतः रहस्य या मूल रस कहा जाता ही नहीँ , जितना रसिकों ने कहा वह उस कही गई स्थिति से भी गहरे में है , और जो बाहर निकला वह सांप की केचुली की तरह , क्योंकि उससे भी नवीन रस उनके पास है , जो कहा नही जा सकेगा .... किसी को 10 तक गिनती आवे वह कहे ना कहना , जिसे 1000 तक गिनती आवें , और वह 100 तक भी कह दे तो जिसे 10 तक आती है उसे लगेगा सब कुछ कह डाला ।

रस का सुत्र है बहना ! रुका तो सड जायेगा ... नहीं रुकता ! कोई रोकता तो प्रकृति सब से पहले रोकती वृक्ष अपना फल रुपी रस खुद पी जाते ! नदियों में रस बहता पर कोई छुता तो हवा हो जाता ! गाय के बछडे को हटा कर दूध लेने वाले को बछडा गाय लेने ना देते !! बहना ही रस है ...
परमात्मा (ईश्वर) को बंधना भी नहीं आता ! ना भेद समझ आता है !
कुँआ है हम जल लिया जाता रहा तो सही , भीतर के स्रोत खुले रहेंगे , जल बाहर  ना लिया तो सूख सकते है , स्रोत रुक सकते है , भीतर से प्रत्येक कुआँ कहीँ गहरे जल स्रोतों से जुड़ा है , जल बाहर लिया जाता रहा तो जल का नवीनीकरण रहेगा ।
सत्यजीत तृषित !!!
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भगवत् पथ की कतार में सबसे नीचे हूँ , अधमी, कहना नहीँ ,मानना भी है और जो बात अधम तक हो वह तो वैसे ही बहने के लिए ही .... अधमी में सामर्थ्य कहाँ ? ईश्वर कृपा कर नित्य अधमी ही रखे ।
भाव नही कहने चाहिये या .. !
हाँ परम् भाव दूसरे सेनहीं कहने चाहिये सच ! क्योंकि कोई नहीं समझता ! भाव को असत्य माना जा सकता है ! आदि ...
पर दो है क्यों ? दूसरा कौन है ?
पहले तो कहा सब में ईश्वर है ! ईश्वर रूप मानो ! ईश्वर का अंश मानो ! हृदय में ईश्वर मानो ! अगर सब वहीं है तो किससे क्या छुपाना ? अगर नहीं दिखते सर्वत्र परमात्मा तो ऐसा गुप्त भाव कैसे मिला ...
और प्रेम तो स्वतंत्र है , कैसे कहीं बंधा ! भाव क्या है  ? अनुभुति ...
गौरांग मत में प्रबोधानन्द जी ने भाव जगत ... अप्राकृत लीला को ऐसा लिखा है कि प्रेमी ना हो तो पढ ना सके ! पढ भी लें तो शायद ही समझ पाये ! युगल की प्रेममय लीला प्रसंगो में निज दिव्य शरीर में वैसा ही भाव जो प्रिया जु को हो रहा है ... कारण श्री प्रिया जु में पूर्ण विलीनता ! युगल मिलन में वहीं स्पंदन ...कंपन आदि ! मिलन का भी विस्तृत चित्रण ! श्री हित राधा वल्लभ मत के भी कई रसिक निकुंज रहस्य कहे है !  जो नहीं कहना चाहते उन्हें पढने चाहिये की किस लेवल तक तो कह दिया गया है ! बहुत बार स्वयं को ही विश्वास नहीं कि भाव राज्य की हवा मिली ! और प्रेम तो है अहम् शुन्यता... अहम् शुन्यता ना हुई तो कैसे भाव दर्शन हुये ? क्या यें सम्भव है ? और अहम् ना रहा तो छिपाना क्या है ? शराबी कितना ही पक्का हो क्या छिपा जायेगा नशा ...
हाँ प्रेमी डुबे और डुबा ही रहे तब बात बने पर जिन से बात होती है वें तो निकले हुये है ...
क्या नहीं कहा जाता ? गुढ भाव जगत् ... जो लोग कहने ना कहने की बात करते है उन्हें अपनी स्थिति भी नहीं पता होती भाव जगत् में गुढ रहस्य नहीं कहा जाता ... क्योंकि वहाँ शब्द नहीं ... नेत्र बरस पडते है ! स्मृति ही बेसुध कर देती है ...
जो कहना है वो रह जाता है और सारी कह दी जाती है ...
प्रभु पर विश्वास हो तो कह ने का प्रयत्न करें ... जो कहना चाहेंगें कह नहीं पायेंगें ... जो कहा समझा ना जायेगा ... और सब नहीं कुछ ही जुड पायेगें भाव से ! स्वभाविक ही गुप्त है रस ! चाह कर रखना तो गलत है ! कोई भी जुडा तो मानना चाहिये कि प्रभु ने कृपा की ! भगवत् रस द्वेष का विषय नहीं प्रेम का है ...
लोग सदा से ऐसे ही जीयें है ... अकेले खुद की थाली में घी ! और ऐसी सोच वाले पहुँचते कैसे है समझ नहीं आता ! एक बात और कहता है प्रेम की वहाँ दीवार नही होती ! मान लो मिट्टी का घडा सागर में उतरा तो मिट्टी पिघल जानी चाहिये तब ही आत्मा परमात्मा एक होगी ! घडे का सागर का जल एक हो जायें ... ऐसा ना हुआ और घडा पुन: बाहर आ गया ... सागर में अहम् रूपी मिट्टी ना पिघली ! तो अनुभव हुआ ही कहाँ ... ??
और माटी बह गई...तो बचा क्या ? सब तो एक हो गया तब तो सब एक रूप परमात्मा हुये ! अहम् शुन्यता से पहले कोई अनुभुति नहीं ! उसके बाद किससे क्या कहा कोई ख़बर नहीं !
संदेह है सब में ... संदेह धारी का झुकाव तो योग पर होता ! निज अनुभव पीकर मौन हो जाता ...
विज्ञान में संदेह है ... योग विज्ञान है ! सुत्र है ! निश्चित् ईमारते है ...
संदेह वाले भाव जगत् - प्रेम संसार की बात करते है और सोचते है किसी नहीं कहना ... प्रेम में कोई संदेह नहीं ! प्रेम कला है ... विज्ञान नहीं ! अकथनिय है ... अनिवर्चनीय है ! शब्दों से परे है ! पर उस अवस्था तक पहुंचों ! कहते कहते जब ना कहा जायें ... कंठ तक शब्द हो बाहर ना निकल सके ! सुनने भर से नहीं मानना वहाँ तक पहुंचे जहाँ तक कहना रुक जायें !
अनिवर्चनीय !  नहीं कहा जा सकता ! बार बार कहा जाता है ! पर वो स्थिति हो ... कि कहने की क्षमता ना हो ...
गुंगे जैसे गुड को ना बखान कर सकें ! खा लें ! पर शब्द ना हो ...गुंगापन छा जायें ! पर जो छिपा रहे है क्या वें उतरे इतने की गुंगे ही हो जायें ? गुंगा कह तो नहीं सकता पर रिएक्ट तो करेगा ... गुंगा अगर गुंगा है तो सब अंधे तो नहीं ... कोई गुंगा गुड खाये तो चहरे पर भाव तो आयेगें ! भावहीन तो होगा नहीं चेहरा ही देख कोई कह देगा कि मीठा खाया है ! गुंगे को हरि मीर्च खिलाकर देखों कि कुछ असर होता है या नहीं कहने की जरुरत नहीं ! बस सब बिन कहे बयान् होगा ! मिर्च ना छिपी तो गुड भी नहीं छिपेगा ! गुंगा अगर गुंगा है तो सामने वाले मंद बुद्धि तो नहीं ...  मीर्च खाने पर मुंह से ना कहे तो क्या गुंगे को पानी ना पिलायेगें ! सुनकर ही पीलाना हो ऐसा नहीं ! गुंगा नहीं बोलता गुड खाकर पर अभिव्यक्तियाँ मौन नहीं होती !
ईश्वर को छुकर भी कोई इस कडवाहट  से भरा हो कि कहना नहीं किसी को तो मैंने देखा है ऐसे लोग चौकीदार हो जाते है ! ईश्वर को भी भुल कर बस यहीं डर .. कहीं कह ना दूं !
कार कंपनी कार तो दे देती है पर कार चलाने वाला बनाना नहीं सिख पाता ! कंपनी अपना सारा रहस्य दे रही है !  कार दे दी है पर केवल चलाता है ! बनी कैसे ? यें नहीं कर पाता ! भाव भी बाहर निकले तो भाव राज्य तक विधाता चाहे वो ही आ सकता है ...
भाव जगत् ! भगवत् रस !कृपा से है ...कृपा आप पर हुई है तो इसलिये कि प्रभु को लगा है कि एक प्रेमी सरल सहज हृदय का है !  जैसे प्रभु उस तक आये ... वो लोगों तक जायेगा ...
श्री श्यामा अगर यहीं विचार रखती तो कोई कृष्ण को सोच ना पाता या देख कर भी ना देख पाता ! श्यामा अपना सर्वस्व दें  सकती है तो क्या जीव श्यामा से बडा है...
गुप्त या रहस्य स्वभाविक गुप्त है ! मैंने कई गुप्त विषय पहले कहे ... किसी किसी ने कहा यें ना कहना था ... मैंने यें ही कहा कि हम निमित है होता वहीं जो जै जै चाहते है ! आप जांच लें विषय अब भी गुप्त है ... कोई नहीं पढता उन्हें ... केवल वहीं जिसे प्रभु देना चाहे ! बिन पढें बहुत कमेंट होते है पर बहुत बार देखा गुप्त रहस्य जाता वहीं है जहाँ जाना है ... सबके सामने होकर भी गुप्त हो वो ही बात गुप्त है ! प्रकृति अपना खनिज - स्वर्ण या रत्न आदि लुटा रही है ... गुप्त निधि वहीं पहुंचती है जहाँ पहुंचना तय है ! रत्नों की दुकानें हो सकती है पर वो रत्न वहाँ होकर भी नहीं है ... उन्हें प्रतिक्षा है किसी अपने की जो हृदय से लगा लें ! सत्यजीत "तृषित"

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