जय श्री राधाकृष्ण
फल दे दे माई, मैं भूखा हूँ !
जड़वत हो गई है वह, किकर्त्व्यविमूढ़-सी अपलक निहारे जा रही है, निमिमेष, मानों पलकों ने अपना झपकने का कार्य ही छोड़ दिया है, उस नन्हे बालक के अप्रतिम पारलौकिक अद्भुत सौंदर्य को देख कर-
"कौन है यह बालक, क्या इस धरा पर इतना लावण्य, इतना सौंदर्य संभव है.....हटते नहीं नयन"
सुधबुध विस्तृत कर बैठी फलवाली के कानों में तभी शहद-मिश्री-सम अति मीठी, मृदुल, खनकती धीमी सी आवाज सुनाई दी-
"मेरी मैया कहाँ है? मुझे तीव्र भूख लगी है, मुझे फल दे दे न माई"
अचानक मानों तन्द्रा से जागृत हुई फलवाली ने एक क्षण भी न गँवाया-
"हाँ हाँ क्यों नहीं, कुँवर! तू सारे फल ले ले"-
कहती हुई फलवाली पूरा का पूरा टोकरा नन्हे कान्हा के समक्ष खोल कर बैठ गई-
"बता लला, कौन सा फल सर्वाधिक रूचि कर है तुझे?"
फलवाली स्वयं नही समझ पा रही है कि कैसे, कब,क्यों, कौन सी ममत्व-वात्सल्य की अविरल अजस्र धारा, अप्रत्याशित रूप से उसके अन्तर्मन से फूट पड़ी है, मानों इस नन्हे बालक के हाथों बिन मोल बिक गई है वह।
"किन्तु मेरे पास कोई मुद्रा नहीं है देने के लिये, मैया भी घर पर नहीं है"-
नन्हे कान्हा का अबोध मधुर स्वर सुन कर और अधिक न्यौछावर हो गई। वह तो प्रथम ही नन्हे कान्हा की अबोध शिशुता पर, उनके चुम्बकीय पारलौकिक अनुपम लावण्य पर पूर्ण रूपेण स्वयं को हार चुकी है।
प्रथम दृष्टि में ही नन्हे कान्हा उसके अपने हो चुके हैं तो अपनों से कैसा मोल भाव? फलवाली के हृदय में बालक से प्रत्युत्तर में कुछ भी प्राप्त करने का कण-मात्र भी भाव नहीं है। वह भोली तो मुक्ति, इहलोक, परलोक भाव से भी त्यक्त इस नन्हे बालक पर मुग्ध हो बैठी है।
भाव के भूखे,उदार हृदय, भक्तवत्सल प्रभु भी तो ऐसे ही भक्तों से बँधतें हैं। यद्यपि फलवाली के हृदय में कोई आकांक्षा निहित नही, किन्तु प्रभु के भंडार तो खुल चुके हैं उसके लिये।
"हाँ ! भंडार घर में अनाज है मैं अभी लेकर आता हूँ"-
और प्रभु दौड़ कर पड़े ठुमक ठुमक, छन-छन पैंजनियाँ बजाते भंडार घर की ओर।
कुछ ही क्षणों में प्रभु अपने दोनों हाथों की बनी नन्ही सी मुठ्ठी में अनाज भर कर ला रहे हैं और आँगन में गिराते भी आ रहे हैं। जिस परमब्रह्म परमात्मा की एक क्षीण सी कृपा दृष्टि के लिये देव, ऋषि, मुनि लालायित रहतें हैं, उन्हीं परमब्रह्म परमात्मा की अपरिमित कृपा दृष्टि फलवाली पर अनायास ही बरसने लगी है।
फलवाली तक पहुँचते पहुँचते नन्हे कान्हा की मुठ्ठी में चार दानें रह गये, मुग्ध फलवाली नन्हे कान्हा के हाथों से चार दाने पाकर ही भाव-विभोर हो उठी। हर्षित प्रफुल्लित व अति संतुष्ट मन से उसने नन्हे कान्हा के हाथ से चार दानों को लेकर अत्यधिक कीमती अमूल्य धरोहर की भाँति,सावधानी से अपने टोकरे में रखे और बालक के ऊपर असीमित आशीषों की बैछार करती हुई अपने घर वापस जा रही है। निर्मल, निश्छल, पवित्र हृदय भोली नहीं समझ पाई है कि उसके टोकरे में इस समय चार दानें नहीं, अमूल्य रत्न भरे पड़े हैं। धन्य है प्रभु आपकी लीला।
(डाॅ.मँजु गुप्ता)
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