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Showing posts from March, 2016

मौन भाव चिन्हहि कान्हा जब , मंजु दीदी

राधे राधे मौन भाव चीन्हहिं कान्हा जब लखि राधिका कान्हा को प्रथम बार द्रवित ह्रदय में छिपे तरल विचार सलज्ज दृगों में तैरने लगे बारंबार। ब्रीड़ा से बोझिल कर झुकी पलकें रक्तारुण कपोलों पर इठलाती अलकें। सिमटते अधरान,अर्ध खिली मुस्कान लता मध्य,पल्लवित कुसुम समान। सलज्ज तन पर रक्तांशुक परिधान या धवल वस्त्र में- शीतल पहचान। पुलकित वदन प्रीति-सा प्रतीत रहा निज दर्शाता,अनचाहे ही खिंचता मन सतत पूर्ण पिय को अर्पित हो रहा। ध्वनित गुँजित शब्द-उच्चारण में एक अनोखा सा मौन छाने लगा मौन में चुपके से कान्हा आने लगा खामोश पदचाप में पिय का अहसास समाने लगा। राधा का अस्तित्व ही अब कान्हा होने लगा। .............................................. कह कर गये हो कान्हा मैं मिलूँगा फूलों में,कलियों में,लहलहाती  अमराइयों में भक्त-प्रेमी के हृदय की अनत गहराइयों में ब्रज-बालकों की खिलखिलाती निश्छल हँसी में प्रत्येक आगन्तुक के चरणों से लिपट कर पूछती बाट जोहती ब्रज-रज में क्योंकि मैं प्रेम हूँ,जो चले जाने के बाद भी प्रेमी हृदय से कभी नहीं जाता है स्वप्न में, ख्यालों में, भावों में सतत जाग

वेदना सम्भालोगे । भाव

देखो तुम कुछ नहीँ करते मेरा एक काम करोगे बोलो करोगें या हर बार की तरह सिर्फ खेलोगे देखो तुम कुछ करते नहीँ बस सताते ही हो और यह काम तुम ही कर सकते हो केवल तुम पर नहीँ तुम्हें नहीँ देना तुम मनमौजी ठेहरे । सब बिखेर दोगे , सब फैला कर मुस्कुरा दोगे बोलो न , करोगे ना । ख्याल से करोगें न ख्याल नहीँ करोगें न देखो मान भी लो सुनो तो , मेरी यह "वेदना" सम्भाल लो इसमें तुम ही नित् जल भी दो इसे पोषित करो देखो , इससे खेलना नहीँ और इसे बिखेरना नहीँ यह सपने समझ फूँक से उड़ाना नहीँ यह मेरा धन है , अब तुम सम्भाल लो , मुझसे नहीँ हो रहा , सब बह जाता है , यह वेदना खो जाती है वह टिस चुभते चुभते सुहानी हो जाती है । देखो यह वेदना एक औषधि है मेरी तुम्हें मैं चाहिये हूँ तो इसे सम्भालो और सदा की तरह नहीँ इसे मेरी धरोहर समझ बढाओ जितनी यह तुम खिला दोगे मैं उतनी जी सकूँगी तुम्हें यह वेदना और मैं दो नहीँ एक है तुम इससे खेले तो वह मुझसे ही होगा और हाँ , यह वेदना मेरी है तुम्हारी नहीँ इसका ख्याल रखना पर छुना नहीँ इसमें जो पुष्प दीखते है वह कांटें है पर प्रेम जिससे है

जीवन और तुम ! भाव

यह जीवन और तुम क्या यह दो अलग धारा है यह जीवन है और तुम हो पर मौन हो जिस पथ पर हृदय की आँख है वहाँ तुम हो और यहाँ तुम नहीँ किस से करुँ बात तुम्हारी ऐसा साथ ही नहीँ किससे कहूँ वह देखो प्रियतम् की चपल ... ... यह भीतर नदी है जहाँ एक और सब है पर तुम नहीँ दीखते और एक और केवल तुम और कुछ फिर देखना शेष नहीँ यूँ बहना सरल है उस और भी केवल तुम ही दिखो जीवन और तुम दो नहीँ एक हो अब तुम ही हो हर रूप रंग और तुम ही मुझे प्रिय हो फिर तुम हो तो मुझे केवल निहारना है मुझे अब यह सब नहीँ तुम दीखते हो । केवल तुम । पर तुम जिस रंग में हो उसी रंग में स्वीकार हो मेरे लिये व्यथित भी तुम तुम्हारे लिये तृषित ही मैं तुम कृष्ण हो और तुम ही मेरे शेष शेष अवशेष विशेष धर लो कोई भी वेश मेरे लिए तुम ही हो मुझे बस मौन निहारना है जैसे गौ आज भी तुम्हें देखती है वैसे ही पाना है सदा सर्वदा तुम तुमसे ही नेह तुमसे ही कलह तुम्हारा ही स्पर्श तुम्हारा ही सुख तुम्हारा ही संग तुम्हारी ही सेवा तुम्हारी ही मैं तृषा तुम्हारा ही तृषित यह जीवन श्वांस प्रश्वांस तुम जीवन मृत्यु और इनसे परे

कौन हो तुम । भाव

कौन हो तुम क्यों हो तुम कहीँ वर्षा तो नहीँ .... रूखे सूखे कूप पर गिरती करुणा बन बन कर ... कौन हो तुम !! बुझते दीपक की आज्या हो तुम ? जीवन यज्ञ में कभी स्वधा कभी स्वाहा हो तुम कौन हो तुम कहीँ तुम विवर्त तो नहीँ कहीँ किसी का श्यामल बिम्ब तो नहीँ .... कौन हो तुम !!! क्या चरण धोवनि मन्दाकिनी हो या चरण छुवन प्यासी कालिन्दी हो कहीँ अद्वैत सरस्वती की साकार धार तो नहीँ हो तुम ... कौन हो तुम ??? ***** श्याम का श्यामा होना प्रकृति का पुरुष होना जीव का शिव और शिव का जीव होना प्रेम रंग में मैं का तुम होना उनके रंग में रँगना उनका मेरे रंग में होना यह जीवन्त स्वप्न विवर्त है

युगल स्वरूप के कमल चरणों में बार बार यही प्रार्थना हे राध

युगल स्वरूप के कमल चरणों में बार बार यही प्रार्थना हे राधे....... हे राधामाधव! तुम दोनों दो मुझको चरणों में स्थान। दासी मुझे बनाकर रखो, सेवा का दो अवसर दान।। मैं अति मूढ़, चाकरी की चतुराई का न तनिक सा ज्ञान। दीन, नवीन सेविका पर दो समुद उड़ेल स्नेह अमान।। ऱज़-कण सरस चरण-कमलो का खो देगा सारा अज्ञान। ज्योतिमयी रसमयी सेविका मैं बन जाऊंगी सज्ञान।। राधा सखी मंजरी को रख सम्मुख मैं आदर्श महान। हो पदानुगत उसके, नित्य करूंगी मैं सेवा सविधान।। झाड़ू दूँगी मैं निकुंज में, साफ़ करूंगी पादत्रान। होले होले हवा करूंगी सुखद व्यंजन ले सुरभित आन।। देखा नित्य करूंगी मैं तुम दोनों की मोहिनी मुस्कान। वेतन यही, यही होगा बस, मेरा पुरस्कार निर्माण ।।। 🙏🏻🙏🏻🌹शुभ कृष्णा रात्रि 🌹🙏🏻🙏🏻

निश्चयात्मक बुद्धि

निश्चयात्मिका बुद्धि कर्म, ज्ञान एवं भक्ति- इन त्रिविध बुद्धियोग में विशुद्ध भक्तियोग विषयिणी बुद्धि ही सर्वाेत्कृष्ट है। मुख्य भक्तियोग का लक्ष्य एकमात्र श्रीकृष्ण ही हैं। इससे केवल भगवत्सम्बन्धिनी बुद्धि ही एकान्तिकी अथवा अनन्या कहलाती है। ऐसी एकान्तिकी भक्ति के अनुष्ठाता साधक भक्त भोग और मोक्ष की कामना से रहित तथा निष्कपट होते हैं। इनकी बुद्धि भी निश्चयात्मिका होती है। वे सोचते हैं कि भजन में कोटि-कोटि विघ्न उपस्थित होते हों तो हों, प्राण जाये तो जाये, अपराध के कारण नरक में भी जाना पड़े तो कोई बात नहीं, परन्तु मैं भक्ति का परित्याग नहीं कर सकता। यदि स्वयं ब्रह्मा भी आदेश करें तो भी ज्ञान और कर्म को अंगीकार नहीं करूंगा। मैं किसी भी परिस्थिति में भक्ति का परित्याग नहीं कर सकता। ऐसी दृढ़ता का ही नाम निश्चयात्मिका बुद्धि है। (श्रील विश्वनाथ चक्रवर्ती ठाकुर)

शिथिल किञ्चित् भीतर स्पंदन

शिथिल किञ्चित् भीतर स्पंदन मुग्ध अधरा व्याकुल अवचेतन क्षुब्ध धरा पर नव नित्य चिंतन गहर गर्भन्तर निरन्तर मनन विशुब्ध विशुद्ध स्मरब्ध दर्शन बिन्द-अरविन्द-हरेन्द पद-अवलोकन "तृषित" शिरोमणी रसय वदन विश्व बिसर हिय पखार तव चरण भावित भाव विनय-विनय भिलाषण सत्यजीत"तृषित"

सुषुप्ति और ब्रज लीला

ब्रज लीला का तत्व भली प्रकार समझने के लिए सुषुप्ति रहस्य को समझना आवश्यक है । जहाँ सुषुप्ति नहीँ और जहाँ स्वप्न भी नहीँ वहीँ प्रकृत जगत अवस्था है । उसी को महाजागरण या परचैतन्य कहकर निर्देशित किया जाता रहा है । वस्तुतः जगे रहना ही चेतन रहना है । वहीँ चैतन्य है । सुषुप्ति अचेतन भाव या जड़त्व है । जो चेतन है , वह वस्तुतः ही चेतन है , अचेतन नहीँ । फिर भी स्वतंत्रता के वश से वह आंशिक रूप में अचेतन हो सकता है ।  यह अचेतन होना ही सुषुप्त होना या निद्रित होना है । इसी का नाम आत्मविस्मृति है । किन्तु यह आत्मविस्मृति स्वेच्छा मूलक है , स्वतन्त्रता से है । इसलिये यह भी केवल एक अभिनय है । वस्तुतः चैतन्य की नाट्य लीला इस सुषुप्ति रूप या आत्मविस्मृति रूप यवनिका के ग्रहण से ही प्रारम्भ होती है । चैतन्य का अपनी इच्छा से अपनाया हुआ यह सुषुप्त भाव आभास मात्र है । महाचैतन्य जागृत ही है , और अत्यन्त क्षीण अंश में मानो सुक्षुप्त या आत्मविस्मृत हो जाता है । यह उसकी स्वभाविक क्रीड़ा है । इस क्रीड़ा को स्वभाव , लीला , अविद्या , अथवा महेच्छा जो भी कहा जाए उसे अस्वीकार नहीँ किया जा सकता । मानो महाचैतन्य की 15 से

नित्य विरह

अभाव (नित्य विरह) ब्रह्म , परमात्मा और भगवान तीनोँ अनुभूतियों में प्रत्येक की ही एक एक स्थिति की अवस्था है  । एक से दूसरी स्थिति में जाना कठिन है , क्योंकि उस स्थिति में मिला रस आगे बढ़ने में बाधक हो सकता है । ब्रह्मानुभूति से परमात्मस्वरूप अनुभूति फिर भगवत् अनुभूति । जिसे पूर्ण रस मय होना हो वह किसी स्थिति में नहीँ बंधता । प्रत्येक स्थिति पाकर आगे की लालसा में बढ़ता रहता है । अभाव ही पथ आगे बढ़ाने में सहयोग करता है । नित्य लीला में जो भी होते है वे परिपूर्ण स्थिति लाभ करके भी उस स्थिति में बंध नहीँ पाते या जुड़ नहीँ पाते , वह तृप्त होकर भी अतृप्त ही रहते है । नित्य मिलन के बीच ही नित्य विरह अनुभूत् करते है । मिलन में विरह होने से मिलन सार्थक नहीँ होता , वैसे ही विरह भी सार्थक नहीँ , वह नित्य मिलन को विरह नहीँ सिद्ध कर सकता है । नित्य मिलन में विरह नहीँ रहता ऐसा नहीँ हो पाता । प्रत्येक स्थिति पूर्ण है , भगवान अखण्ड है , अतः उनका खण्ड हुआ ही नहीँ , वहीँ भगवान अखण्ड होने से सभी स्वरूप में अनन्त जगत में लीलामय है । भगवदरूप के मध्य वहीँ एक ही वस्तु चिदानन्दमय अखण्ड अद्वितीय सम्राट भाव के

विरहानन्द-समर्पणानन्द

लावण्य नि:शब्द प्रीति    विस्फरण आलौकित चेतन त्वरित स्पर्श सर्वस्व हरण    नि:शान्त मृतिका देह सुशान्त तरल मन     प्रशान्त दीपिका पुंज आलोकन का मधुर चुम्बन     प्रस्फुर तिमिर विघटन हृदयंत अंधतम् करुणम्    त्रेनेत्र करत प्रियतम् दर्शन अंधकृत आलिंगन    प्रेमास्पदन आत्म विघर्षण प्रज्ज्वल  लौ केवल तव चेतन   मौनावृति सजीव चित्रण वांग्मय जगत नित नव प्रयत्न    परम् तत्व सदा अकथन प्रतिक्षण वदन पूर्ण न लेखन   रुदन-करुण-विरहानन्द प्रेम-हर्ष-उन्मदानन्द    नृत्य-गायन-वादनानन्द पूर्ण भाव रहस्यानन्द   अज्ञात संचरण विलयानन्द चक्षुजल करत अर्चनानन्द    सरल अरविन्द सच्चिदानन्द प्रभु तव आगमन नमन वन्दनानन्द तृण "तृषित" न जानत जीवनानन्द असमर्थ पावत पूर्ण समर्पणानन्द  !! *** सत्यजीत तृषित ***

श्रील हरिदास ठाकुर की हरिनाम को प्रार्थनाएं

-- हरिनाम से प्रार्थनाएं - यही भाव हो हमारा -- हे भगवन ! मुझ पर कृपा कीजिये और मेरी जिह्वा पर प्रकट हो जाइये; वहां निरंतर नृत्य कीजिये । हे भगवन ! मैं आपके चरणों में गिरकर आपसे यह विनती करता हूँ । आपकी इच्छानुसार, आप मुझे इस संसार में रखें या अपने धाम ले चलें, आप मेरे साथ चाहे जो करें परन्तु मुझे अपने दिव्य नामों का अमृतपान कराते रहें । आप इस संसार में पवित्र-नाम को वितरित करने के लिए अवतरित हुए हैं, इसलिए कृपया मुझे भी उन्हीं लोगों में से समझिए जिन पर आप कृपा करने का विचार लेकर आये हैं । हे पतितों के उद्धारक ! मैं अधमों में अधम हूँ, और आप अधमों का उद्धार करने को प्रतिबद्ध हैं, यही हमारा नित्य-सम्बन्ध है । हे भगवन ! हमारे इसी अटूट सम्बन्ध के बल पर मैं आपसे भीख मांगता हूँ कि मुझपर अमृतमय पवित्र-नामों की वर्षा करें । - श्रील हरिदास ठाकुर की हरिनाम को प्रार्थनाएं  (हरिनाम चिंतामणि ११.५३-५७, स १५४)

श्री कृष्ण और कदम्ब के वृक्ष

श्री कृष्ण और कदम्ब का वृक्ष समग्र मधुवन में श्री कृष्ण को कदम्ब का वृक्ष ही सर्वाधिक प्रिय है। अनगिनत भौतिक उपयोगिताओं से विशिष्ट यह वृक्ष बलराम शेषनाग स्कन्द के अति प्रिय मादक पेय 'कादम्बरी' के रस का दुर्लभ स्त्रोत है। श्री कृष्ण की क्रीड़ा स्थली का प्रिय अंग कदम्ब का वृक्ष केवल भौतिक दृष्टिकोण से ही नहीं, आध्यात्मिक दृष्टिकोण से और अधिक विशिष्ट है। एक ही डंठल पर अनेक पुष्पों का समूह, एक ब्रह्म से अनेक जीवात्माओं के अभिन्न सम्बन्धों को प्रकट करता है। ब्रह्म ने एक से अनेक होने की प्रक्रिया में जीवों के रूप में अपना विस्तार किया, इसी मूल एकता के भाव का प्रतीक है कदम्ब। मधु भरी सुगंध में सरोबोर आनन्दित श्री कृष्ण सभी को आनन्दमग्न कर देते हैं। इसीलिए वह माधव कहलाये। व्युत्पत्ति की दृष्टि से 'क' का अर्थ प्रजापति होता है- जो सृष्टि का सृजन करने के लिये उपस्त इन्द्रियों में निवास करतें हैं।इसी इन्द्री का दमन भी कर सकते हैं वह। अत: कदम्ब जितेन्द्र व तत्वज्ञान का भी प्रतीक है। अर्थात कृष्ण और कदम्ब का सम्बन्ध सामान्य नहीं, कदम्ब की छाँव में खड़े श्री कृष्ण इन्द्रियजीत हैं

आज तो गज़ब ढाये दियो सलोनी जी भाव

अरी सखी आज तो गजब ढाये दियो गजब!!!! मत पूछ कैसो गजब उदासी की मटकी फोड़ी हाए ।। बहरूपिया बन आया अब जौहरी कहत उन नग हीरों की कीमत जाणो हो जा सजो उन भगवन तन जिन तू पिया पिया कह हो कंठ लगी आह।। लगी बड़ी ज़ोर की मैं जोगन पिया प्रेम में न कुछ जानु न किसी को पहचानु ऐसो बाण चलाया जोग का फेर अपना सर्वस्व भूली बनी धूल कण पड़ी सेहरा में किस विधि पत्थर कीमत जानु अब किस विधि पिया को धजुं किस विधि उनको फिर पाऊं फेर लगन कंठ पिया के कितने जन्म लगैं न जानूं दिन रैन पड़ी तड़प रही किस संग विरह वेदना बांटू मौन धरूंगी तुम सा प्रिय कह भीतर ही तप संन्यास लिया तड़प तड़प कर फिर पिया को ही याद किया ऐसा दर्द उठाया हृदय में सब जग अब विसार दिया न कित देखुं न कित बोलुं पिया मिलन का अलख जगा लिया दिन रैन की कोई सुधि न रही देह भान भी त्याग दिया अरी कहत है काहै प्रेम कियो काहै तूने रोग लगाएओ इब बता का बोलूं अखियों में आँसू और मुख ही न खोलुं अरी कहत है प्रेम वरेम किसी बेद पुराण में  नाए होवै है अरी पछताए रही काहे आज ज्ञान के चक्र में पड़ गई सखी सच्ची बताऊं अगर कोनो बेद पढ़ लियो ना

पूण्य कहे तो पाप भी कहे

स्वगाथा , पुण्यों का बखान , महिमा आदि बहुत कहते है , बल्कि सब कहते है । साहस चाहिये सत्य हेतु । सब पूण्य कहे तो सब पाप भी । पाप कहते ना बने तो पूण्य को कहना व्यर्थ है । जो हाथी चींटी से घबराये वह अन्य बाधा का क्या सामना करेगा , नाहक बड़ा दीखता है । जो भय मुक्त है , वह सत्य है , भगवान का ही है ।

मन्दिर उनका प्रतीक्षालय तृषित भाव

मैं आज फिर लौट आयी मन्दिर से और वह वहीँ है मैंने कहा मुझे ईश्क है , उसने कहा नहीँ  , मैंने सुना वह देता है , मांग कर देखा , उसने फिर भी कुछ चाहा नहीँ जब मैं मन्दिर गई या कहू प्रियतम से मिलने तब वह मुझे देख रहे थे मैंने सब और देखा रंग बिरंगे लोग ,  सब को , देखा कही यहाँ कोई जानता तो नहीँ ना , कोई नहीँ मिला तब उन्हें देखा, बहुत सुंदर । पर मैंने नैन मूँद लिए क्यों ? यह नहीँ पता पलकों को जबरन बन्द कर लिया । नैन खोले क्योंकि संग लाई सेवा देनी थी , नैन खोल वहाँ अपनी पहचान के पुजारी जी खोजे वह ना मिले , बाहर गई , वहाँ जहाँ सब बैठ कर बात करते है उस कमरे में उन्हें वह सब दिया । मैं फिर आई , मेरी लाइ माला पुजारी जी ने पहना दी , मैंने फिर भी माला को देखा अब सुंदर लगे मुझे । माला को थोड़ी देर देखा आँख बन्द कर ली ढोक लगा दी , खड़ी हुई देखा वह अब भी मुझे देख रहे थे । बाहर निकलने और पहुँचने में बहुत लोग मिले , सबको पता था , मुझे उनसे प्रेम है , सो बात की घर आ गई । अब ख्याल आया ,, क्या मुझे प्रेम है , अगर मुझे मिलना ही था तो मिली क्यों नहीँ ? मैंने पल

कहते है , तृषित भाव

कहते है --- ना , ना बिल्कुल ना । कुछ ना कहो । ना कहो मैं प्रेमी हूँ ना कहो मुझे प्रेम है सब से । ना कहो इन्हें कि एक बार मुझे आलिंगन ही कर लेना है तुम कहोगे तो इनकी मंशा टूटेगी मेरी नहीँ इनकी होने दो यह आते और लौट जाते है यह बहुत है कहीँ यह ना आये तो , मैं खुश हूँ , यह खुश है बस वह मत कहना मैंने क्यों कहा तुमसे , नहीँ जानता शायद बह गया अब तुम ना कहना मैंने झूठ कहा था कोई मुझे नहीँ चाहता तुम भूल जाओ उसे , वह झूठ है देखो सब मुझे चाहते है यह धरती , पवन , नदियां , पर्वत देखो यह पंछी यह तो मेरे लिये ही गाते है देखो यह लता , यह वन सब रंग भर झूम रहे है न मेरे ही लिए , यह मुझे चाहते है न । कहो सब चाहते है न ...... ......और ....  मानव ? क्या वह भी आपसे प्रेम करते है ? ... ... ... ... ... ... कहिये ??? बस ! बोलो नहीँ सब आ गए , जाओ । व्यर्थ बात करते हो सदा मुझे कुछ ना कहना था तुमसे तुम सब भूल गए यह भी भूल जाओ क्या अब आप मुझे श्राप दे सकते हो नहीँ ना ।।। तो भूलूँ कैसे ? असम्भव है ।।। आशिष दे जो भूलना था भुला डाला । अगर श्राप दे सकते तो यह भूल ही जाता ।