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Showing posts from 2019

हरिदासी उत्सव

हमारे श्रीहरिदासी रस में श्रीयुगल नित्य बिहारित है , प्रियाप्रियतम नित्य है और  नव रस में खेल रहे है (निकुँज उपासना) सो उत्सवों को रसिक आचार्य उत्सव अनुगत मनाया जाता है , नित्य रस में ही निकुँज उपासना तक ही रहना वैसे ही है जैसे ऐश्वर्य भार से आराम देकर और विश्राम तथा और भाव-  सुख- श्रृंगार- आदि जुटाते रहना । श्रीयुगल के (निजहिय सुख की उपासना) * श्रीहरिदासी नित्य रस उत्सव * (रसिकाचार्य उत्सव) भाद्रपद शुक्ल अष्टमी (राधा-अष्टमी) * श्रीस्वामीजू का उत्सव * मार्गशीर्ष शुक्ल पंचमी (बिहार पंचमी) (विवाह पंचमी) * श्री विट्ठलविपुलदेव जू * श्रावण शुक्ल तृतीया (हरियाली तीज) * श्रीबिहारिणी देव जू का उत्सव * आश्विनी शुक्ल पूर्णिमा (शरद पूर्णिमा) * सरसदेव जू * ज्येष्ट कृष्ण द्वितीया * श्रीनरहरिदेव जू * माघ शुक्ल पंचमी (बसन्त पंचमी) * श्री रसिकदेव जू * मार्गशीर्ष कृष्ण अष्टमी (भैरवाष्टमी)  * श्रीललितकिसोरीदेव जू * माघ कृष्ण एकादशी (षटतिला एकादशी) * श्रीललितमोहिनीदेव जू * भाद्रपद कृष्ण अष्टमी (जन्माष्टमी) * श्रीपीतांबरदेव जू का उत्सव * कुँजबिहारिणी उत्सव (होरी महोत्सव) फाल्गुन शुक्ल अष्टम

अति प्रचार और अमृत वितरण - तृषित

किसी भी पथ का जब अति प्रचार हो तब ही विकार होता है क्योंकि सभी अनुयायी सम स्थिति पर नही होते । और अनुसरण भंग होकर अपनी अपनी छद्मता उसमें झोंक दी जाती है । मदिरा भी औषधिवत्  ग्राह्य है जब तक औषधी में वह है । औषधी से पृथक् वह विकृति ही प्रकट करती है (औषधी - सिद्धान्त) अमृत भी सभी के लिये नही है । कोई कहे भक्ति पथ भी क्या कालान्तर में अधर्म हो सकते है (पूर्णिमा जैसे गृहण हो जाती वैसे हो सकते है) यहाँ मोहिनी अवतरण देखना चाहिये ।  सुर और असुर स्थिति में सुर स्थिति में ही अमृतपान हो यह  चाह कर मोहिनी अवतरण लेने पर अमृत वितरण स्वयं मोहिनी अवतरण सँग श्रीहरि करें तब भी राहु-केतु अमृतपान करते है जिससे अमृत का असुरत्व में प्रवेश होने से अपभृंश प्रकट होते है । कितनी ही सतर्कता हो राहु केतु अमृतपान करेंगें यह पुरातन तथ्य है तदपि अपनी ओर असुरत्व में अमृत-वितरण नही किया जाता (श्रीहरि-आश्रय से पृथकताओं की माँग ही असुरता है)

भावना भक्ति से निषेध अनुसरण तक - तृषित

जयजय । भावना की ही वन्दना भक्ति है । भावुक ही रसिक भावना की वन्दना कर सकता है । अगर स्वामी जू की छबि निषेध है तब केवल हे नाथ मैं तुझे ना भूलूँ उसे उनके नाम सहित लगाकर भी उन्हें नमस्कार किया जा सकता है । स्वामी जू जानते है कि जीव का सत्य-विस्मरण एक जीवन ही हो गया है । श्रीहरि के प्रति प्रीति हो इसलिये ही श्रीहरि गुण-गान के लिये कोई भावुक करुणावश तैयार होते है सो वह पृथक् अस्तित्व की माँग ना स्वयं में चाहते है ना अपेक्षा करते है कि पृथकता को माना जावें । परन्तु जीव बाह्य इंद्रियों के सँग को छोड नही पाता और इनसे ही रस लेता है जबकि देह तो दाह तक सँग है अगर देह की प्रीति को चिन्तन से दाह कर लिया जावें तब इंद्रिय दिव्य होकर रस ले और दे रही होगी । जीव का तर्क है कि हमने भगवान को नही देखा सो गुणगान करते सन्त को ही वंदन करें जबकि यह इच्छा बाह्य नेत्र को सत्य मानने पर होगी । भगवदीय शक्ति से सिद्ध स्थिति को अभिन्न मानने पर भी जीव कहता है कि  इनमें ही हरि है । यह आचार्य भक्ति (गुरुभक्ति) हुई परन्तु आचार्य की अपनी निष्ठा और भावना का आदर कर उनके सिद्धांत और प्रेम का आदर होने पर उनके द्वारा प्रक

प्रीतिहिंडोरा - तृषित

*प्रीतिहिंडोरा* जब कृपा वर्षण से भरे हृदय पर परस्पर कृपाओं की घर्षण होती है तब कृतज्ञता की वर्षा होती है और क्षण-क्षण बलिहार होकर झूम रहा होता है वही कृतज्ञ लता श्रृंगारित होकर प्रीतिहिंडोरा हो जाती है एक बार श्रीयुगल प्रियालाल को लेकर झूमा हुआ हिंडोरा उनकी मधुता की सुगंध से मुक्त नहीं हो सकता रसाभार से भर रस देने को आकुलित रसीले हिंडोरे के सरस रसालाप नित्य-लय होकर जीवन को ही हिंडोरावत झूलता हुआ दर्शन करते है । बलिहार होते श्रृंगारों की बलिहार होती उल्लसित रसवर्षिणी झाँकियाँ। तृषित । जयजय श्रीश्यामाश्याम जी ।

कृष्णकर्णिका सन्गिनी जू

*अजहूँ कहा कहति है री.....* *.....तू ही जीवन तू ही भूषन तू ही प्रान धन......* *कृष्णकर्णिका* 'कृष्ण तन कृष्ण मन कृष्ण ही है प्रान धन ' ,,,, यही शब्द गुंजायमान थे हृदयस्थ .....तन मन धन ....तन मन से तो भलीभाँति गहरी आत्मियता है हमारी....सो इनके प्रति कुछ ना कहूँ तो बेहतर....परंतु धन...यहाँ उस धन की वार्ता ना हो रही जिस हेतु हम अपने तन और मन के भगवदाह्लादित हार्दिक हर्षित नित्य स्वरूप को विस्मृत कर चुके हैं । यहाँ बात हो रही उस अति सघनतम दिव्य धन की जो रससुधा स्वरूप हमारे तन मन में निरंतर नवरसीला नवरंगीला हमारी चेतना होकर समन्वय हेतु संचरित पुलकित हो रहा....जिसे हम बुद्धिजीवी यंत्रवत् मान रहे वह वैसा जड़ है नहीं सखी...सहज द्रवित वह भावित भीतर बह रहा !! आत्मीय होते हुए भी हम उससे मुख मोड़े हुए देहरूपी बीहड़ वन के अनुरूप विचर रहे....अपितु हमारा बहाव अंतर्मुखी होना चाहता....उस बेलगाम बिहरन से बीहड़ वन में सुखसेज होने को नित्य उत्सुक...उत्फलित...परंतु हमारी आत्मियता हमें बहिर्मुख कर रही विपरीत परिस्थिति में.... !! तो आवश्यकता है मात्र भीतर उस मौन संग मौन होकर निहारने की ...संभवतः प्री

श्रम जल कन नाहीं होत मोती ... सन्गिनी जू

*श्रम जल कन नाहीं होत मोती* *प्रीति वल्लरिका* पुष्पों को निहारो सखी ....अनंत काल से अनंत तक यूँ ही सुरभित कृपावर्षा में भीगे भीगे सौरभ से भरे सौरभ ही बिखेर रहे ...भावसुमन...अहा ...रसिक वाणियों में भर भर कर ज्यों बिखर रहे...वही बिखरा दो ना सखी जू...मुस्कराते देती हूँ हिय की इस मधुर कामना पर जो सखी जू से कहने कुछ और चलती है पर माँग मधुरता की ही करती है ...समझ रहीं ना आप मेरी पथप्रदर्शिका और हियपत्रिका पर भावसुमनों की सींचिका प्यारी दुलारी सखी जू !! तो मैं कह रही थी कि यह माला रूपी देह...इस पर सजे ये श्रम जल कन...अर्थ स्पष्टतः युगल हेतु है परंतु हम इन श्रम जल कन की भावस्थिति को अन्यत्र ले जाते ...श्वेदकन ही कहूँगी ...ये अति उज्ज्वल अति निश्चल प्रतिबिंबित श्रम जल कन जो पियप्यारी जू के रसवर्धक होते ...रसाधिके का अद्भुत सुंदर श्रृंगार जो सुरभित सौरभित पियहिय की दिव्य मनि ही है ....सुसज्जित लज्जित संकुचित भावित युगल के परस्पर रसश्रृंगार .... नहीं समझी ना...तो इन लघु परंतु अति गहन मधुर वचनों को किंचित सैद्धांतिक होकर निहारती हुई विश्लेषण करने का प्रयास मात्र करती हूँ ....अत्यधिक भाषाओं का

तू रिस छाँड़ि री राधे राधे ...वाणी पाठ क्यों

*तू रिस छाँड़ि री राधे राधे* *वाणी पाठ क्यों ???* भक्ति महारानी जू मानिनी भई सखी जू ,,,, उसे मनाना है उसे पाना है,,,, उसे ,,, जिसके लिए ये सगरे खेल सजे हैं  ,,, लीलाएँ सजी हैं ।। हम अक्सर चाहते उसी परमानंद को पाना जिसका अंश हममें आनंद होकर जी रहा ,,, जिस आनंद की अगर स्थिति प्रगाढ़तम गाढ़ न हो तो हम विचलित रहते ,,,कामनाएँ पीछा नहीं छोड़तीं ,,, आनंद की खोज तो स्वतः खेल रही परंतु उस तृषा की सुधि हम बिसर चुके और अन्यत्र तलाश रहे ।। तो आखिर वाणी पाठ या शरणागति निज मंत्र ही सहायक क्यों सखी  ?? लगता ना कि पाठ करने से मन को शांति मिलती ,,,,पर क्या मन पाठ के दौरान शांत होता क्या  ?? नहीं ना !! तो प्रश्न उठता पाठ क्यों  ?? सखी ,,, साँप के डसे को भी सिद्ध पुरुष मंत्रोच्चारण से नवीन जीवन प्रदान कर सकते परंतु अगर वो जीव जीने की कामना ही खो चुका हो तो मंत्रोच्चारण भी काम नहीं आते क्यों कि उसके जीवन में तृषा का अभाव था । कामना का खो जाना जहाँ हम वरदान मानते ,, वहीं अगर परमानंद की खोज हेतु भीतर भाव ना हो तो ऐसे जीवन को पुनः पाने की लालसा ही कहाँ शेष रहती ?? सखी सत्य मानो !समस्त लालसाएँ पूर्ण होकर