श्री राधा ने प्रियतम श्री श्याम सुन्दर के दर्शन करके सर्वसमर्पण कर दिया. अब वे आठों पहर उन्ही के प्रेम रस सुधा समुद्र में निमग्न रहें लगीं. श्यामसुंदर मिलें न मिलें - इसकी तनिक भी परवा न करके वे रात दिन अकेले बैठी मन ही मन किसी विचित्र दिव्य भाव राज्य में विचरण किया करतीं. न किसी से कुछ कहती, न कुछ चाहती, न कहीं जाती आती.
प्रसंग - एक दिन एक अत्यंत प्यारी सखी ने आकर बहुत ही स्नेह से इस अज्ञात विलक्षण दशा का कारण पूछा तथा यह जानना चाहा की वह सबसे विरक्त होकर दिन रात क्या करती हैं. यह सुनकर श्री राधा के नेत्रों से अश्रुबिंदु गिरने लगे
और राधा रानी जी बोलीं - प्रिय सखी! ह्रदय की अति गोपनीय यह मेरी महामूल्यमयी अत्यंत प्रिय वस्तु, जिसका मूल्य मै भी नहीं जानती, किसी को दिखलाने, बतलाने या समझाने की वस्तु नहीं है; पर तेरे सामने सदा मेरा ह्रदय खुला रहा है. तू मेरी अत्यंत अंतरंगा, मेरे ही सुख के लिए सर्वस्वत्याग्नी, परम विरागमयी, मेरे राग की मूर्ती मान प्रतिमा है, इससे तुझे अपनी स्थिति, अपनी इच्छ्हा, अभिलाषा का किंचित दिग्दर्शन कराती हूँ.
प्रिय सखी ! मेरे प्रभु के चरणों में मै और जो कुछ भी मेरा था, सब समर्पित हो गया. मैंने किया नहीं, हो गया . मेरी सारी ममता सभी प्राणी पदार्थ परिस्थितियों से हट गयी, अब तो मेरी सम्पूर्ण ममता का सम्बन्ध केवल एक प्रियतम प्रभु से ही रह गया, जगत में जहाँ कहीं भी, जितना भी, जो भी मेरा प्रेम, विश्वास और आत्मीयता का सम्बन्ध था, सब मिट गया. सब ओर से मेरे सारे बंधन खुल गए. अब तो मै केवल उन्हीं के श्री चरणों में बंध गयी. उन्हीं में सारा प्रेम केन्द्रित हो गया . उन्हीं का भाव रह गया. यह सारा संसार भी उन्हीं में विलीन हो गया, मेरे लिए उनके सिवा किसी प्राणी पदार्थ परिस्थिति की सत्ता ही शेष नहीं रह गयी, जिससे मेरा कोई व्यवहार होता.
सखी ! में नहीं चाहती मेरी इस स्थिति का किसी को कुछ पता चले. और तो क्या, मेरी यह स्थिति मेरे प्राण प्रियतम प्रभुसे भी सदा अज्ञात रहे. प्यारी सखी ! मै सुन्दर सरस सुगन्धित सुकोमल सुमन से सदा उनकी पूजा करती रहूँ, पर बहुतही छिपाकर करती हूँ; मै सदा इसी डर से डरती रहती हूँ, कहीं मेरी इस पूजा का प्राणनाथ को पता न चल जाए.
में तो केवल यही चाहती हूँ की मेरी पवित्र पूजा अनंत काल तक सुरक्षित चलती रहे. में कहीं भी रहूँ कैसे भी रहूँ, इस पूजा का अंत कभी नहो और मेरी यह पूजा किसी दूसरे को - प्राण प्रियतम को भी आनंद देने के उद्येश्य से न हो, इस मेरी पूजा से सदा सर्वदामै ही आनंद लाभ करती रहूँ. इस पूजा में ही मेरी रूचि सदा बडती रहे, इसी से नित्य ही परमानंद की प्राप्ति होती रहे, और यह बढती हुई पूजा ही इस पूजा का एकमात्र पवित्र फल हो. इस पूजा में नित्य निरंतर प्रियतम के अतिशय मनभावन पावन रूप सौन्दर्य को देखती रहूँ. पर कभी भी वे प्रियतम मुझको और मेरी पूजा को न देख पायें. वे यदि देख पायेंगे तो उसी समय मेरा सारा मज़ा किरकिरा हो जाएगा. फिर मेरा यह एकांकी निर्मल भाव नहीं रह सकेगा. फिर तो प्रियतम से नए-नए सुख प्राप्त करने के लिए मन में नए-नए चाव उत्पन्न होने लगेंगे.
यों कह कर श्री राधा जी चुप हो गयीं, निर्निमेष नेत्रों से मन ही मन प्रियतम के रूप सौन्दर्य के दर्शन करने लगीं.
सत्यजीत
"जय जय श्री राधे"
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