लाडिली यदि तुम मुझे अपना मानती , तो अवश्य मेरी सुध लेती और पूछती -ऐ रि तू का चह्वे है ?
हाँ तुम इतनी रसमयी हो कि उलाहना में भी रस ही विचारती हो । कुछ न कहोगी । सोचती होंगी न जाने यां पगली का का माँग लेवे , मैं स्वयं बता देती हूँ मैं क्या चाहती हूँ ।
सुनो मैं क्या चाहती हूँ ।
तुम मुझसे नहीँ मिलना चाहती ना , ना मिलो , पर अपने मिलन की चटपटी लगा दो । तुम्हारे ना मिलने का हृदय में मृत्यु से कठोर दर्द चाहती हूँ । तुम्हारा विरह चाहती हूँ ----
इतना बात कृपा करि दीजै ।
मिलन चटपटी हियमें लागै , विरह ताप तन छीजै ।।
तुम तौ मिलौ न कृपा करि , मो चित प्रेम सौं भीजै । ।
नयनन नीर बहै निसि-वासर , हियौ कठोर पसीजै ।।
भोरी कौ अवलम्ब न दूजौ, टेरी टेरी कै जीजै ।।
'कृपा मयी एक बात और कहूं ---
देखत देखत दिन सब बीते ।
तुम अटूट अनुराग की दाता , हम अजहूँ रीते के रीते ।
तृषित सब वन सुख गए
अब तो वृक्ष भी जल गए
हिम अब लावा हो गया
पर तुम निष्ठुर ,
साँस कैसे लेती हो
प्रिया बिन मचल रही हो ?
क्या भीतर जल रही हो ?
हाँ तो दहक जाना है
क्यों सजानी चिता
विरह दाह से जल ही जाना है ?
उन्हें न बाधित करो
ना आवें तो
गुदड़ी समेट लपेट लो जी
जो तन ना जले विरह में तो
तुम संग कभी प्रीत न मोरी
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