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Showing posts from February, 2017

र से रस 14 , संगिनी जु

!! श्रृंगार रस !! श्री वृंदावन धरा धाम की गहनतम भावरसरूप श्रृंगार रस की दिव्य अति दिव्य रस परिपाटी जिसका वृंदावन से बाहर अनुभूत होना असम्भव भी और रसिक हृदय वृंदावन भूमि पर प्रियालाल रूपी सरस कृपा का सहज सींचन।सखी सहचरियों द्वारा किए जाने वाले अत्यधिक सुंदर पर बाह्य दैहिक और कुंज निकुंजों के श्रृंगार से परे एक गहन दिव्य श्रृंगार जो श्यामा श्यामसुंदर जु के हृदय की गहनतम भाव भंगिमाओं के फलस्वरूप उपजता है जहाँ तत्सुख भाव परस्पर इतना गहराता जाता है कि प्रिया जु का दिव्य श्रृंगार स्वयं प्रियतम श्यामसुंदर और श्यामसुंदर जु का श्रृंगार स्वयं श्यामा जु हो जाते हैं।परस्पर प्रेम में डूबे युगल रस में ऐसे भीगते हैं कि उनके श्रृंगार पूर्णतः एकरस होकर फिर बदल जाते हैं।आरसी इस रसश्रृंगार की तरंगों में ऐसी डूबती है कि बड़े कलात्मक ढंग से प्रिया जु को प्रियतम और प्रियतम को प्रिया जु ही परस्पर एक दूसरे में भरे हुए दिखते हैं।उनका अपना कोई भिन्न स्वरूप है यह मात्र एक बाह्य स्वरूप ही रह जाता है।ऐसे दिव्य गहन श्रृंगार रस की साक्षी सखियाँ व सुपात्र रसिक हृदय ही अपने विशुद्ध प्रेम रस में डूबे चिंतन कर पाते हैं

र से रस 13 , संगिनी जु

!! बरसाना गह्वरवन मोरकुटी गौवर्धन !! श्रीयुगल जु की श्री वृंदावन की पवित्र भूमि पर रस विहार हेतु ऐसे दिव्य लीला स्थल हैं जहाँ नित्य प्रति श्यामा श्यामसुंदर जु गलबहियाँ डाले नित्य निवास करते हैं।उनकी परम सुखमयी सहचरी सखियाँ उनकी दिव्य रस लीलाओं का पान करतीं उनके लिए दिव्य रसस्थलों पर कुंज निकुंजों का निर्माण करतीं रहतीं हैं।यमुना जु की भावतरंगों में नौका विहार से लेकर गौवर्धन जु की तलहटी में सुंदर खेल उत्सव में लीलारत संलग्न रहते युगल सदैव सखियों संग विचरण करते रहते हैं।मोरकुटी में नृत्य व संगीत प्रतियोगिताओं में डूबते उतरते युगल रस भाव सदा निकुंज में रसलीलाओं को जीवंत रखते हैं।ब्रज भूमि से बरसाना धाम तक सदैव प्रियालाल जु के आवागमन से चलायमान रस का आदान प्रदान होता रहता है।श्यामा श्यामसुंदर जु की सुख की हितु सखियाँ पुष्पाविंत सेज श्य्याओं का निर्माण करतीं गह्वर वन में विचरती रहती हैं।सघन अति सघन कुंजों में भी श्यामा श्यामसुंदर जु की प्रीतिरस की मधुर झन्कारें सदा गूँज बनकर सुनाई पड़ती हैं।जहाँ रसिकवर रस में नहाए डूबते अश्रु बहाते धरा धाम का सींचन अपनी प्रियालाल जु के प्रति प्रीत में रसलि

र से रस 12 , संगिनी जु

!! वेणु रव !! व्याकुल मन की पुकार।एक वंशिका धुन छिड़ती आनंद में जब राधा जु और सखियों के प्रेम में डूबे मदनगोपाल उन्हें विश्रामित करना चाहते तब वे वंशी में मधुर तान छेड़ देते जिसे सुन सखियाँ व राधा जु रसमग्न होतीं।एक गहन वेणु रव बज उठता जब श्यामसुंदर जु अति व्याकुल हो अपने ही वस्त्राभूषणों से खिन्न होकर बांस की वंशी में राधा नाम पुकारते और इसमें प्राण फूँक इसे जीने लगते।वेणु वादन के समय श्यामसुंदर श्री जी अधर रस का चिंतन करते हैं।वेणु का राग श्री जी के अधर अनुभूति से श्यामसुंदर की अधर माधुरी को छू कर सप्त छिद्रों से प्रवाहित हो सप्त लोक को रस में डुबो देता है।अधर रससुधा पान करते वंशी के छिद्रों को एक एक कर दबाना छूना जैसे प्रिया जु के अंग प्रत्यंगों के माधुर्य को छूना।अधीरतावश वेणु रव गहराने लगता है और प्रियतम श्यामसुंदर वियोग की परिसीमाओं से श्यामा जु को पुकारते हुए अश्रु बहाने लगते हैं और तब वेणु श्यामसुंदर जु के अधर रस से पगी तीव्र उत्कण्ठा से श्यामा और श्यामसुंदर जु को एक से दो कर देती है।इस वंशी नाद से प्रिया जु अति व्याकुल होकर श्यामसुंदर जु के मुख से वंशी को हटा देतीं और उन्हें अध

र से रस 11 , संगिनी जु

!! मंजीर मृदंग सितार नूपुर बाँसुरी !! वृंदावन की पावन धरा धाम में प्रवेश करते ही सुमधुर संगीत धमनियों की सी झन्कार कर्णपुटों से होते हुए हृदय द्वार को मधुरता से खटखटाने लगतीं हैं।सखियों व श्रीयुगल के पद थाप से उठती रज को तरंगायित करती यह संगीत ध्वनियाँ वृंदादेवी द्वारा कीर मयूर पपीहा कोकिल इत्यादि वन्य जीवों के कलरव की संयोजक हैं।जहाँ जहाँ प्रियालाल जु रस आसक्त हुए सखियों संग विहार विलास करते हैं वहाँ वहाँ यह संगीत धरा से स्वतः उठता हुआ आसमान में भी उड़ते पक्षियों भ्रमरों को संगीत लहरियों में बाँध रखता है।अप्राकृत संगीत में रमता सखियों का मंजीर मृदंग वादन और उस पर भी लाल जु की बाँसुरी की आकर्षित करने वाली राधा नाम पुकार अद्भुत झन्कार यमुना जल की कल कल रसस्कित पवन की सर्र् सर्र् धरा से उठती धप धप ध्वनि जैसे सखियों संग खेलतीं श्यामा जु यहाँ वहाँ और उन्हें सदा ढूँढते विचरते वंशी बजाते श्यामसुंदर।छुपे भी नहीं पर तलाशते सदा एक दूसरे को परस्पर एक दूसरे में डूबे हुए।इस सबसे परे श्यामा जु की इठलाती अटकेलियाँ करती मधुर हंसी की झन्कारें जो नूपुर मंजीर को संयोजित करतीं और प्रियतम श्यामसुंदर की वं

र से रस 10 , संगिनी जु

!!विरह रूदण अश्रु !! हे हरि मुझे उन गोपांगनाओं का मधुरतिमधुर क्रंदन रूदण कर दो जिससे वे तुझे रो रो कर सदैव पुकारती हैं।उनकी पुकार कर दो।रसिक हृदय की टीस की मधुर झन्कार बना दो जो सदा तुम में रमते हैं और तुम्हें ही पुकारते हैं।उनके अंतस की प्रीति की जोत श्रीयुगल के चरणों में सदा जगती रहती है और वे अपने रूदण को छिपाकर यूँ वृंदावन आनन कानन में विचरते हैं कि श्यामसुंदर उन्हें देख ही ना लें पर सदा उन्हें इस विरह रूपी दावानल में जलाते डुबाते ही रहें।उनकी इस करूण पुकार में भी अद्भुत प्रेम है जो उनके लिए मिलन से भी अधिक सुखद है।मिल कर भी बिछड़ना और बिछुड़न में भी सदा मिले रहना यही करूणा अपने प्यारे की इन विरही जीवों को युगांतरों जिलाए रखती है।देखने से दूर पर अंतस में सदैव प्रियतम से लिपटे हुए ये करूण क्रंदन रूदण करते विरही बड़भागी प्रियालाल जु की करूणा के पात्र उनमें होकर उनमें डूबे।अपने अश्रुओं से उनका पथ प्रक्षालन वाद्य अपनी देह का नहावन करते रहते।ऐसे प्रेमियों के श्यामा श्यामसुंदर जु भी बलिहार जाते हैं क्योंकि ये पल भर भी उनसे अभिन्न नहीं रहते। हे प्रिया हे प्रियतम !! मुझे इस विरही प्रेमियों

र से रस 9 , संगिनी जु

!!आकर्षण मर्धन घर्षण !! एक अद्भुत आकर्षण भरा रहता सदा वृंदावन की कुंज निकुंजों में।सुबह सकारे माँ यशुमति जब लाड़ले श्यामसुंदर जु के लिए नवनीत बनाती हैं तो उनकी मथानी मंथन में एक अद्भुत घर्षण भरा रहता है।मईया के आभूषणों की झन्कार और मथानी से घट के घर्र घर्र स्वर का संगीत संगम और इस पर भी मईया के नेत्रों में भरे कान्हा की भावलहरियों से उद्गम होता मुख से सुंदर गुणगान जिसे मईया सहज ही गा पातीं हैं।उनका लाल सोया हुआ है यह जान मईया मंद स्वर से गातीं रहतीं हैं जैसे सहज ही बसंत में पुष्प पत्रावली नीलवर्णा यमुना जु का सुनहरा श्रृंगार कर रही हो।वहीं गोप-गोपांग्नाओं का भवन में आगमन उनके पद कुण्डल व पाजेब की मधुर ध्वनियाँ।भोर में ही श्यामसुंदर की दर्शन लालसा से बहकी गईयों का रम्भाना और बछड़ों की सखाओं संग शंख वाद्यों से ताल मिलाती मधुर रम् रम् झन्कार।सखियों का घुंघरू बंधे कलशों को उठा जल भरने जाना और गगरिया की आपसी टकराहट से ठन ठन करती मधुर प्रीति भरी झन्कार।संगिनी सहेलियों की राधे संग स्नान करते हंसी ठिठोली भरी मस्ती की मंत्रमुग्ध करने वाली फुहारें और सेवारत सखियों का चंदन उबटन महावर घिसने से घर्ष

र से रस 8 , संगिनी जु

!! व्रजवनिताएँ !! वृंदावन ठाकुर ठकुराईन की कायव्यूहरूप सहचरी सखियाँ।अहा !!अधर पर प्यारी मुस्कान गौर श्याम वर्ण चाल में लचक वेणी की नागिन सी लटकन पायल नूपुर की थिरकन और पद थाप में हिय तरंगायित करती झटकन।अद्भुत प्यारी सुंदर सलोनी जग से न्यारी प्रिया जु की प्रेम संगनियाँ और लाल जु की नटखट अठकेलियों की छबीली छवियाँ।इनके हृदय में इतना प्रेम कि अथाह सागर में और घुमड़ घुमड़ गर्जन वाले सावन भी बरस कर पार पा सकें।हृदय में श्यामा जु को भर कर श्यामसुंदर जु से अत्यंत प्रेम करतीं ये सखियाँ।नित्य नव लीलाओं की आधारशिला और प्रियाप्रियतम के केलि मिलन की नींव वृंदावन साक्षी ये सहचरी सखियाँ जिन्हें देख कोटि कोटि लक्ष्मी पार्वती सरीखी अति सुंदर कामिनियाँ भी लजा जातीं।मुख पर गाली अधर पर लाली आँखों में मस्ती और चाल में मधुर प्रेम भरी किंकणियों की ध्वनि जो श्यामसुंदर जु के हृदय में कभी प्रेम बाण सी तो कभी व्यंग्य कटाक्ष सी रूनझुन रूनझुन मधुरिम संगीत बन सदैव समाई रहतीं हैं।श्यामा जु की कामोत्तेजना की गहनतम भावभंगीमाएँ और श्यामसुंदर जु के हृदय की धड़कन यह प्यारी मतवाली मनवानी सहचरी सखियाँ। हे प्रिया हे प्रियतम

र से रस 7 , संगिनी जु

!! मयूर भ्रमर कीर मृगी सारि !! वृंदावन के डाल डाल पात पात पर श्रीराधे राधे होय।हर वृक्ष हर लता पर मधुर प्रियाप्रियतम जु के रसप्रेम के गीत गाते गुनगुनाते व श्यामा श्यामसुंदर जु की ही धुन पर झूमते नाचते इठलाते वृंदावनिय मयूर मृग खग इत्यादि।युगल रूप में प्रतिपल युगल वंदना में निमग्न मधुर कलरव से वृंदा देवी के गहन आलिंगन में बद्ध होकर रहने वाले ये पक्षी प्रियालाल जु के दूत दूती रूप यहाँ वहाँ उड़ते रहते।एक श्यामा जु का गुणगान करती तो दूसरा श्यामसुंदर जु को लीलाधर कह समग्र विश्व प्रेमियों को दिव्यता की सुमधुरतम कोमल प्यारी गहन झाँकियों का रसमय वाणी से दार्शनिक गान सुनाता।श्यामा  जु की वेशभंगिमाओं से अंकुरित कमलदल के दिव्य सरोज मकरंद से झड़ते निरंतर मधु का पान करते श्यामसुंदर स्वरूप भ्रमर भोर रात्री मंडराते मधुर गुंजार करते युगल ध्वनि से नव नव प्रेम रस गान कर डूबे रहते। हे प्रिया हे प्रियतम !! इन सुंदर सलोने दिव्य रस में डूबे दिव्य अमरत्व प्राप्त जीवों का तुम जो कह दो तो "र" सुर हो जाऊँ नित्य प्रति नित नव कलरव कर दिव्य प्रेम लीलाएँ सुमधुर मैं गाऊँ  !!

र से रस 6 , संगिनी जु

!! तृण लता !! वृंदावन के तृणमूल लता पता स्नेहालिंगित गहनतम रसरूप माधुर्य के साक्षी गाते झिलमिलाते।सूर्य के प्रकाश को लजाते।सन सन छन छन की मधुरिम ध्वनि से नाम राधे राधे गाते।हिल मिल कर एक ही साज़ में कृष्ण कृष्ण बुलाते।पवन की सर्र सर्र सुरताल से विहरते श्यामा श्यामसुंदर जु के कदमताल संग ताल मिलाते।तृण पात वृक्ष वल्लरी सब झुक झुक कर श्यामा श्यामसुंदर जु के स्पर्श से महकी वृंदावन धरा को छूकर फिर उठ जाते।डाल डाल पात पात पर राधे नाम की महावर को सजा कर नित्य नव नवीन राग गाते। हे प्रिया हे प्रियतम !! इन रसस्कित रसपल्लवों की तुम जो कह दो तो "र" नाम की झन्कार बन इतराऊँ डोलूँ पवन संग मिल हरि हरी हरियाली छटा बिखराऊं

र से रस 5 , संगिनी जु

!! मधुर ब्यार रसस्कित जल तरंग !! वृंदावन धाम की रसस्कित ब्यार एक दिव्य झंकार लिए सदा प्रियाप्रियतम जु से एकरस होकर अनुकूल बहती है।मधुर ब्यार तृण पत्रों का रस श्रृंगार करती एक से दूसरे और फिर सम्पूर्ण धाम में रस संचार करती है।इस ब्यार के चलने में अद्भुत नृत्य की सुररूप झंकार सदा रहती है जिससे मयूर पिक कपोत इत्यादि सदा दिव्य इत्र के अनुभव से महके रहते हैं।ऐसी ही दिव्य झंकार सदा भरी रहती है यमुना जु की भावलहरियों में जो श्यामा श्यामसुंदर जु के प्रेम रस की महक पवन में पाते ही विपरीत दिशा में बह चलती है।यमुना जु में बहता जल तरंगायित होता हुआ श्री युगल के प्रेम रस स्वरूप ही कभी मंद तो कभी नृतिका रूप तो कभी गहरे उछल्लन लिए बहती रहती है।यमुना जु प्रियाप्रियतम जु के चरणों में पुष्प अर्पित करती है और उनके अति सुकोमलतम चरणों को छूने के लिए कभी उफान तरंगों का रूप भी धर लेती है। हे प्रिया हे प्रियतम !! मुझे इन दिव्य सुगंधित ब्यार व भाव इत्र से रसपूर्ण जलतरंगों का अगर तुम जो कह दो तो झंकरित रसरूप "र"सुर हो जाऊँ और श्वास बन जल और वायू तत्व होकर धाम में अनवरत बहूं !!

र से रस 4 , संगिनी जु

!! प्रेमी रसिकवर !! श्यामा श्यामसुंदर जु के अद्भुत प्रेम रस रास के साक्षी यह रसिक रास अति रसीले जो सदैव डूबे रहते हैं श्रीयुगल जु की लीला स्फूर्तियों में।क्षण क्षण छके हुए से ऐसे जैसे उन्हें बाह्य जगत का कोई होश ही नहीं।वातावरण व जागतिक परिस्थितियों से ऊपर उठ चुके यह रसिकवर जिनका सच्चा संसार प्रियालाल जु का दिव्य धाम ही है।देह से यहाँ पर भावदेह को जीते सदा श्यामा श्यामसुंदर जु व उनकी सखियों के अप्राकृत प्रेम राज्य में।जगत की सुद्धि भुला कर वहीं विचरते प्रियाप्रियतम जु की लीला स्मृतियों में और दर्शन कराते झरोखे स्वरूप उन दिव्य लीलाओं का।अद्भुत रस पिपासु यह रसिकवर प्रियालाल जु के अलौकिक गहन प्रेमी।दिव्य दर्शक और आईना इस संसार में उस अलौकिक साम्राज्य के। हे प्रिया हे प्रियतम !! उन रसिक रस रसीले महानुभावों की चरण रज पा जाऊँ मस्तक धरूँ और दिव्य लीलाओं का तुम जो कह दो तो सदा गुणगान करूँ  !!

र से रस 3 , संगिनी जु

!! वृंदावन !! स्पष्ट झन्कार ! एक अद्भुत खिंचाव इस देह प्राण को झन्करित करता एक ब्रह्म स्थल गहन अनुभूति नाम में ही।अपनी ओर आकर्षित करता एक स्वप्न या एक दिव्य लीला स्थल।जड़वत् करता जगत की जड़वत् भवतरंगों को।एक प्रेम भूमि जहाँ गहनतम भाव लहरियाँ अंतरंग भिगोतीं सी।एक स्वर्ग धरा पर प्रिया प्रियतम प्रेम निकुंज अनवरत बहता जहाँ प्रेम रसरंग।दिशाएँ भीगीं तरू पल्लव रसस्कित धरा और अम्बर। वृंदावन !!सात सुरों से लिए एक सुर से हर्षिणी देह हुई झन्कृत स्पंदित ! हे प्रिया हे प्रियतम ! तुम जो कह दो तो चुन लूं "र"शब्द बन स्वर वृंदावन थिरक उठूं रूनझुन रूनझुन

र से रस 2 , संगिनी जु

!!वृंदावन रज !! स्वर मधुरिम आ रहा है !मधुर गीत प्रेम के कोई गुनगुना रहा है।महक उठ रही यहाँ की रज से क्षुब्ध जीवन को महका रहा है।कण कण में महक गहरे प्रेम की रज से पराग बन अंकुरित होती।नित नव पंकज खिलाती।पराग बन फिर खिल जाती।झर कर मकरंद कण बन मधुप भ्रमरों को नचाती।चरणकमल सुकोमलतम में बलि बलि अर्पित हो जाती। वृंदावन रज !! त्रिभुवन के सतरंगी रंगों से रंगी श्यामा श्यामसुंदर जु के प्रेम में पगी।छूते ही तन मन में गूँज उठती हे प्रिया हे प्रियतम !! वृंदावन रज से "र" को चुन लूं ध्वनित संगीतमयी धराधाम से रस प्रेम के रंग ले दसों दिशाओं में बिखरूं

र से रस , संगिनी जु

"झन्कार" सा-सांवरे 'रे'-रे गा-गाऊँ गीत मा-मृदंग मधुर पा-पाजेब नूपुर धा-धा धा धींम ताम नी-नील पीत रस रंग नहाऊँ हे हरि सात सुरों की सरगम से एक सुर मैं चुन लूं कहो जो तुम तो प्यारे मधुर एहसास बन लूं प्रेम रस से रंगी हर्षिणी रसवर्षिणी की एक कला बन लूं डूब जाऊँ सात सुरों में अंनत रंग रूपों में ढल लूं तुम जो कहो तो प्यारे एक सुर मैं चुन लूं सात स्वरों की तरंगों से एक मधुरिम ध्वनि चुन गाऊँ गुनगुनाऊँ थिरकूँ ताल से ताल मिलाती प्रिय श्यामा जु को रिझाऊँ अगर तुम जो कह दो तो सांवरे सुर प्रेम के बन इतराऊँ हे श्यामसुंदर प्रिय मनमोहन तान बांसुरी की बन राधे राधे गाऊँ मैं एक सुर जो चुन लूं तो प्रति ध्वनि बन नाद अजब सुनाऊं तुम जो कह दो तो प्यारे चित्त से स्वर बन जाऊँ हे प्यारी श्यामा जु प्राणों से प्यारे प्रियतम के अधर सुधा रस पान से बांसुरी की धुन से कृष्ण कृष्ण स्पंदन उपजाऊं तुम जो कह दो तो प्यारी सात सुरों की रागिणी एक सुर चुराऊं हे राधे हे राधे एक मंजीर मधुरिम झन्कार तुम्हारी करधनी पायल की बन राग अनुराग के गाऊँ तुम सज संवर बन दुल्हन बनो

बैठ तरू लाल सखी पै , आँचल जु

एक पतली,लम्बी व कच्ची पगडंडी के इस छौर पर दो,तीन सखिया कुछ ढूंढती सी खडी है।ये इधर उधर देख रही की तभी पास के पेड पर बैठे लालजु ने इन सबके उपर गुलाल उडेल दिया। ओह!सब की सब रंग गयी।किंतु लालजु फस गए,सबने इनके पाँव पकड लिए,खींचने लगी...उतार कर ही छोडी। सब इनको पकड श्रीजु सम्मुख लायी,तब सखिया स्वामिनी जु का श्रृंगार कर रही थी।सब लालजु को घेर सारी बात बता रही,और लालजु के लिए सजा की दरकार करने लगी। लाडली जु मंद मुस्कान संग कही,सखियो इन्होने तुमको रंगा तब तुम सब भी इनको रंग दो। तब सब बोली,आप हमारी स्वामिनी,सो इनको सजा देने का अधिकार आपको ही। आप इनको रंगकर हमारे संग हुए हुल्लड का प्रतिकार किजिए। तब स्वामिनीजु "बहुत अच्छा" कह चली। एक सखी थाल मे गुलाल ले आई,पर लाडलीजु जरा सा चुटकी मे गुलाल ले लगाने चली,तभी समीप ही खडी ललिता जु बोली- अरे!मै दीखाती हू,कैसे रंग लगाते,और यह कहकर सारा गुलाल भरा थाल लालजु पर उडेल दिया। उधर से पास खडी सखी से गुलाल का थाल छीनकर लालजु ने लाडलीजु पर उडा दिया। अब तो होड लग गयी,पूरा कुंज गुलाल से रंग गया।सब गुलाल उडा रही। और सबके बीच मे लालजु मौका पाकर ल

फिर छिड़ी रात बात फूलों की

https://youtu.be/evQvrEjxvTo फिर छिड़ी रात बात फूलों की रात है या बारात फूलों की । फूल के हार, फूल के गजरे शाम फूलों की रात फूलों की । आपका साथ, साथ फूलों का आपकी बात, बात फूलों की । नज़रें मिलती हैं जाम मिलते हैं मिल रही है हयात[1] फूलों की । कौन देता है जान फूलों पर कौन करता है बात फूलों की । वो शराफ़त तो दिल के साथ गई लुट गई कायनात[2] फूलों की । अब किसे है दमाग़े तोहमते इश्क़ कौन सुनता है बात फूलों की । मेरे दिल में सरूर-ए-सुबह बहार तेरी आँखों में रात फूलों की । फूल खिलते रहेंगे दुनिया में रोज़ निकलेगी बात फूलों की । ये महकती हुई ग़ज़ल 'मख़दूम' जैसे सहरा में रात फूलों की ।