Skip to main content

रसिक बर रसिक , भगवत रसिक

रसिक बर रसिक रसीलौ रसिया ।
अंजन दै, मनरंजन कीनौ, खंजन दृग फसिया ।
करि मनुहारी भुजनि भरि भैंटी, बदन चूमि हसिया ।
सुनि भगवत पुनि लेत बलैया, करत मदन बसिया ।।

रसिक वर प्रियतम् बड़े ही रसीले रसिया है । इन्होंने प्रियतमा के नेत्रों में अंजन पूर कर उनके मन को अनुराग से ऐसा रंगा कि उनके खंजन जैसे (विशाल और चंचल) नयनों के सौंदर्य में स्वयं ही फंस गए, फिर लगे प्रियाजी की मनुहार करने । उन्होंने इनको भुजाओं में भर कर हृदय से लगा लिया तो उनके मुखारविंद का चुम्बन करके खिल-खिला कर हँस पड़े । मदन को भी वश में करने वाली मोहन की इस मन-मोहिनी हँसी (की खिलखिलाहट) को सुनकर नित्य सखी भगवतअलि उनकी बार-बार बलैया लेने लगीं है ।। जय जय श्यामाश्याम

Comments

Popular posts from this blog

युगल स्तुति

॥ युगल स्तुति ॥ जय राधे जय राधे राधे, जय राधे जय श्री राधे। जय कृष्णा जय कृष्णा कृष्णा, जय कृष्णा जय श्री कृष्णा॥ श्यामा गौरी नित्य किशोरी, प्रीतम जोरी श्री राधे। रसिक रसिलौ ...

वृन्दावन शत लीला , धुवदास जु

श्री ध्रुवदास जी कृत बयालीस लीला से उद्घृत श्री वृन्दावन सत लीला प्रथम नाम श्री हरिवंश हित, रत रसना दिन रैन। प्रीति रीति तब पाइये ,अरु श्री वृन्दावन ऐन।।1।। चरण शरण श्री हर...

कहा करुँ बैकुंठ जाय ।

।।श्रीराधे।। कहाँ करूँ वैकुण्ठ जाए.... जहाँ नहीं नंद, जहाँ नहीं यशोदा, जहाँ न गोपी ग्वालन गायें... कहाँ करूँ वैकुण्ठ जाए.... जहाँ नहीं जल जमुना को निर्मल, और नहीं कदम्ब की छाय.... कहाँ ...