रसिक बर रसिक रसीलौ रसिया ।
अंजन दै, मनरंजन कीनौ, खंजन दृग फसिया ।
करि मनुहारी भुजनि भरि भैंटी, बदन चूमि हसिया ।
सुनि भगवत पुनि लेत बलैया, करत मदन बसिया ।।
रसिक वर प्रियतम् बड़े ही रसीले रसिया है । इन्होंने प्रियतमा के नेत्रों में अंजन पूर कर उनके मन को अनुराग से ऐसा रंगा कि उनके खंजन जैसे (विशाल और चंचल) नयनों के सौंदर्य में स्वयं ही फंस गए, फिर लगे प्रियाजी की मनुहार करने । उन्होंने इनको भुजाओं में भर कर हृदय से लगा लिया तो उनके मुखारविंद का चुम्बन करके खिल-खिला कर हँस पड़े । मदन को भी वश में करने वाली मोहन की इस मन-मोहिनी हँसी (की खिलखिलाहट) को सुनकर नित्य सखी भगवतअलि उनकी बार-बार बलैया लेने लगीं है ।। जय जय श्यामाश्याम
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