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Showing posts from 2018

श्रीनवद्वीप गौर धाम महिमा अमिता दीदी

*श्रीनवद्वीप गौर धाम महिमा* जय जय जय श्रीनवद्वीप धाम। गौरनिताई नाम जहां गूँजे आठोंयाम।।1 गौरचन्द्र की लीला भूमि वृन्दावन स्वरूप। युगल श्यामाश्याम यहाँ धरे गौर कौ रूप।।2 सीतानाथ अद्वैत प्रभु किये हरि सौं मनुहार। कलिताप हरण कौ प्रभु लेयो आप अवतार।।3 जन्म लियो विप्रवंश में निमाई भयो नाम। शचिनन्दन सुत भ्यै गौरांग वितरित किये हरिनाम।।4 फाल्गुनी पूर्णिमा भई सूर्यग्रहण जब आय। हरि हरि की ध्वनि जब हर कोई मुख सौं गाय।।5 प्रकटे हरि आप ही चाखन भक्ति कौ स्वाद। हरि हरि नाम सुन हृदय भरयौ आह्लाद।।6 बाल रूप लीला किये बाल गोपाल समान। नदिया बिहारी निमाई भ्यै नदिया के उर प्राण।।7 हरि हरि कौ नाम सुन हँसे बालक रोना छोड़। हरिनाम की लग गयी सकल नादिया होड़।।8 गोद लेह लेह लाड़ करैं नारी नदिया की सारी। जिस भाँति गोपी प्रेम रह्यौ कृष्ण जन्म अवतारी।।9 हरिनाम कौ स्वाद लये विशम्भर कौ भ्राता। गौर नाम उच्चरण सौं सदा कलिताप नसाता।।10 बालरूप लीला अनेक कीन्हीं कृष्ण समान। गंगा तट क्रीडित हरि सोई कृष्ण यमुन समान।।11 हरे कृष्ण कौ नाम सदा मुख राखै हरि गौर। हरिनाम जपत साँझ भ्यै हरिनाम जपै भोर।।12 गंगा त

आनंद कौ परमानंद , संगिनी जू

*DO NOT SHARE* *आनंद कौ परमानंद* "हरि के अंग कौ चंदन लपटानौ तन तेरे देखियत जैसे पीत चोली..... मरगजे अभरन वदन छिपावति छिपै न छिपायें मानौं कृष्ण बोली...." श्रीकुंजबिहारी श्रीहरिदास...जयजयश्री सरकार जू कौ अद्भुत आनंद सखी जू...मुखकमल पर ऐसो रस...ऐसो नेह छलकि छलकि पड़ै...कि बखान कियौ ना जाए और ना कियौ तें अंतर बिच अकुलाए.... आज ही तो निहार पाई री...श्रीयुगल की भोर समै की विचित्र छबि... जहां भोर कौ सूरज ना उग सकै और ना चंद की शीतलता प्रेम की शीतल छाँव सौं ढल सके ... अति भोर में प्रियतम प्रिया जू कौ मिलनोत्सव और उस मिलनोत्सव की रसभरी रसमगी रसछाँव में भीगी भींजी सी परमानंद में डूबी गुरुवर सहचरिगण सखियन...अहा ....!! युगल कौ आनंद तो अतृप्ति की चादर औढ़े निकुंज महल की तरुनाई सुरभित सिज्या ही बखान कर रही...और उस पर जब भीतर प्रवेश कर सखी ने रात्रि के पुष्पों की चादर पर भोर की कलियाँ खिला दीं तो... ... ... आश्चर्य ना...वहाँ सूर्य का प्रवेश ही नहीं...रैन भई ते सखी रात्रि के गहरे रंग में सुरभ सुभग लाल हरे पुष्पों से कुंज सजातीं तो भोर भई तें उन्हें गहराई से उजागर कर श्वेत गुलाबी सुघ

भावना  (हित रस रीति)

भावना  (हित रस रीति) DO NOT SHARE ‘भावना’ से तात्पर्य उस सेवा से है जो किसी बाह्य उपादान के बिना केवल मन के भावों के द्वारा निष्पन्न होती है। इस सेवा में सेव्य, सेवा की सामग्री एवं सेवक भाव के द्वारा उपस्थापित होते हैं। इस सेवा का समावेश ‘ध्यान’ के अन्तर्गत होता है। इस सेवा में भी सर्वप्रथम सखी भाव को अपने मन में स्थिर करना होता है। भावना के अभ्यासी को यह तीव्र आकांक्षा अपने मन में जगानी होती है कि ‘मुझको जिस भाव का आश्रय है, वही जिनका भाव है, भगवान के उन नित्य संगीजनों जैसा प्रेम मुझ में भी हो।’ निजोपजीव भावानां भगवन्नित्य संगिनाम्। जनानां यादृशो रागस्ताट्टगस्तु सदा मयि।। ‘अभ्यासी को सखीजनों के भाव की भावना में स्थिर रहना चाहिये क्योंकि उस भाव को लक्ष्य करके अपने अन्दर बढ़ी हुई भावना-वल्ली कभी फलहीन नहीं होती।' इत्थं भावनयास्थेयं स्वस्मिस्न्तस्मभिलक्षिता। समृद्धा भावना वल्ली न वंध्या भवति ध्रवम्।। इस सम्प्रदाय के भाव के अनुकूल भावना के अभ्यास का क्रम इस प्रकार बतलाया गया है। ब्रह्म मुहूर्त में उठकर एवं मन को एकाग्र करके पहिले मंत्रोपदेष्टा गुरु के सखीरूप को और फिर सम्प्रदाय

राधा चरण प्राधान्य , हित रस

DO NOT SHARE *राधा-चरण-प्राधान्‍य* राधा-सुधा-निधि के एक श्‍लोक में श्रीराधा को ‘शक्ति: स्‍वतन्‍त्रा परा’ कहा गया है; और इस के आधार पर कुछ लोग हि‍तप्रभु को शक्ति-रूपा सिद्ध करने की चेष्टा करते हैं। किन्‍तु उक्त श्‍लोक को ध्‍यान पूर्वक देखने से मालूम होता है कि इस में हितप्रभु ने श्रीराधा संबंधी सब प्रचलित मान्‍यताओं को एक स्‍थान में एकत्रित कर दिया है और साथ में अपना दृष्टिकोण भी दे दिया है। वह श्‍लोक इस प्रकार है। प्रेम्‍ण: सन्‍मधुरीज्‍ज्‍वलस्‍य हृदयं, श्रृंगार लीला कला- वैचित्री परमावधि, भंगवत: पूज्‍यैव कापीशता। ईशानी च शची, महा सुख तनु:, शक्ति: स्‍वतन्‍त्रा परा, श्री वृन्‍दावननाथ पट्ट महिषी राधैव सेव्‍या मम।। इस श्‍लोक में, हितप्रभु ने, ‘मधुरोज्जवल प्रेम की हृदय रूपा, श्रृंगाल-लीला-कला-वैचित्री की परमावधि, श्रीकृष्‍ण की कोई अनिर्वचनीय आज्ञाकर्त्री, ईशानी, शची, महा सुख रूप शरीर वाली, स्‍वतन्‍त्रा परा शक्ति और वृन्‍दावन नाथ की पट्ट महिषी श्रीराधा’ को ही अपनी सेव्‍या बतलाया है। हितप्रभु के सिद्धान्‍त से परिचित कोई भी व्‍यक्ति यह नहीं कह सकता कि वे श्रीराधा की उपसाना उनके ईशानी, श