ततो राधा प्रियकृष्णं वाक्यमुचे कृतार्थकृत् ।
मम पित्रपुरे त्वं हि मया सह प्रतिष्ठतु ।।
(पद्म पुराण)
युगल प्रियप्रियतम नित्य मिले ही है .... दोऊ चकोर दोऊ चन्द्रमा , और एक प्राण द्वय देहि, मिले रहत कबहुँ मिले न । इन दर्शनों की झाँकि से रसिक धारा बरसती ही रहती है । ऐसी झांकियां उनकी तीव्र प्रेमेच्छा है । युगल नित्य है , संयोग (मिलन)सुख रस में मग्न है , मत्त है , लीला विनोद के लिए नित्य मिलते दीखते है, वरन् नित्य मिलन है ।
वृषभानु बाबा की लाड़ली किशोरी कभी नन्दगाँव चली जाती है और श्री नन्दगाँव से ब्रजभूषण श्रीकृष्ण का वृषभानुपुर आना-जाना लगा ही रहता है । प्रेम सम्बन्ध की प्रगाढ़ता में क्षण भर का विछोह भी असहनीय लगता है ।
एक बार विनोद ही विनोद में प्रणय पगी किसी मत्त लहरी से उद्वेलित हो भोली भाली किशोरी ने सकुचाकर प्रियतम् से कह ही दिया , "प्रियतम् ! मेरे पिता की नगरी में तुम मेरे साथ सर्वदा विराजमान रहा करो, ऐसी मेरी प्रार्थना है इससे मेरा स्थान और प्रियकर होगा | " अनन्य प्रेमी श्री कृष्ण अपनी प्राणाराध्या किशोरी श्रीराधा की बात किस प्रकार टाल सकते थे ? अतएव उन्होंने सहर्ष स्वीकार कर लिया । मन्दिर में प्रियाप्रियतम के दिव्य दर्शन है ।
कुछ समय पहले बरसाना गए , फिर वृन्दावन , वहाँ एक स्थान पर किन्हीं ने केवल वृन्दावन को युगल रस हेतु कहा । और कहा बरसाना जाने की आवश्यकता ही कहाँ ? तब बरसाना में होने वाले तीव्र स्पंदन उन्हें कहे न गए , वें बड़े और वेशधारी थे । बस भीतर आघात लगा कि वृन्दावन का क्षेत्र जितना भागवत् जी कहती है उस दृष्टि से सब वही आ जाते है । आज वृन्दावन स्थान विशेष है , वृन्दावन समूचा रस क्षेत्र ही कहा गया है । जहाँ भी युगल पद गिरे वही नित्य वृन्दावन प्रकट है ।
इस बात से संग के कुछ लोगोँ को मुझे छेड़ने का अवसर मिला , बातों में कहा भी उन्होंने सब रस यहीं है बरसाना ना भी जाते तो ..... पीड़ा और गहरा गई ।
अतः पद्मपुराण मत अब वहाँ जहाँ अपनी भावनाओं को कहा नहीँ जा सकता । प्रेम शास्त्रोक्त ही है , शास्त्र के बाहर कुछ नहीँ । बस उचित बोध न होने से धारणा बन जाती है। भगवान भेद हीन है , संशय रहित है । धाम नित्य स्वरूप ही है ।
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