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Showing posts from 2017

संगीतविशारदा -संगीतप्रसराभिज्ञा भाग 2 , संगिनि जु

"अथ संगीतप्रसराभिज्ञा "भाग -2 "गावति लालन संग नवल नागरी। संगीत सुघर सुर सरस सप्त लेत सुन्दरि ताल सचित लालन कहत गुननि आगरी।। रीझि सुबस भये रसिक बिहारी बिहारिनि रंग रंगे रस रागरी। जस गावत सचु पावति दासि बिहारिनि राजत चिर चिर अनुराग सुहागरी।।" आलि री...अलिन संग पियप्यारि मधुकर हित मधुमय मधुर वाणि से लिप्त अति मधुर राग अनुराग भरे सुरत स्वरों में भीने रसरंगालाप रहीं हैं...अहा... ... ... जैसे अनंत अनंत रागनियाँ रससहचरियाँ बन प्यारी जु के कोमल सुकोमल चरणनखों में विराजित उन्हें स्पंदित कर रहीं हैं...और क्षणिक इस स्पंदन से रस बढ़ते बढ़ते उनके हिय में प्रवेश कर...हियपिय की सुषुप्त हिय रसतरंगों को मधुर स्पर्श दे रहा है...और नयनों से बहते हुए ब्यार में महक उठा...अहा...अति गहन...अति मधुर...सुधि बिसार पियप्यारि अपने हियपिय को मधुर वाणि से रसपान करा रहीं हैं...और हियवसित प्रियतम तो प्यारी जु की इस मधुरिम मृदुल ग्रीवा से झर रहे...अधरों से बहते...हिय में उतर रहे वाणि श्रृंगार पर कोटि कोटि बलिहार जाते ना अघाते...प्रियतमा की मुखाकृति और उस पर सजे ये रसीले अतिमधुर रस में भीगे रस

संगीत विशारदा 1, उज्ज्वल श्रीप्रियाजु , संगिनी जु

ए री सखी...निरख तो जे कमल दल न्यारै ही खिलैं हैं जमुना पुलिन ते...अद्भुत गुलाबी गुलाबी...जामुनी मोगरा जुही से महके...सतरंगी मनरंगी पराग बूँदन सौं सजे धजे...स्वर्णिम ओस कणों से दमके चमके...जानै है री...यांकी जे सम्मोहन कर लेने वाली रूपछटा कैसे सलोनी छबि बन नैनों में समाए रही...अहा ! अरी सखी...जे हरे हरे रूपहले बागै और तामैं बिंधै जे पीत नील लताजाल री...सखी री...स्मायल जलतरंग पर सरसती खिलती जे सुघर दमकीली रसतरंगें...अहा... ... ...कैसे कहूँ...जामैं पसरा है मौन रसीला...छबीला...गरबीला...आहा...सरसीला... सखी...संगीत नाद सा छिड़ रहा जैसे नि:शब्द सी रसधमनियाँ...तिल तिल तृषा को जागृत करतीं...सुनाई ना आवै ना... आ तनिक मौन हो री...अपने में खो तो...भीतरी गहन रसीली संगीत तरंगों को श्रवण कर...किंचित सबहिं ओंज सौंज सौं निसांत होय कै निहार जे उपवन कौ...कण कण थिरकता लागै...महके सुमन सिज्या पर बतियाते...चतुरिंगनी रसांगिनी रूपहली लताएँ चटकती कलियों का तान बंधान...अहा...स्वमौन होकर श्रवण तो प्रत्येक प्राकृतिक चिन्मय गहन रसभाव संगीतमय है रह्यौ री... अहा...रस बरस रहा...नयनों के झरोखों से...अधरों की मंद रस

टीस... पुकार , संगिनि जु

एक टीस...एक पुकार...एक प्यास सी उठ रही हिय से...कैसी...यह अतृप्त तृषा... हा हा... ... ...अभिन्न आलिंगित सदा पर तब भी पुकारती यह तृषा... जाने कौन भीतर गहरतम समाया जिसकी यह प्यास या मेरी... अज्ञात पर गुह्यतम...अंतरंग...अंतराग...लावा सी उफनती...भरती...सिसकती...पर थाम ली जाती भीतर ही...कैसे...क्यों...और कब से जाने क्या...हा...बस यही सुनाई आता...बस यही... ... ... नित नव संगीतमय रगों में दौड़ती...गहराती...और डूबती सी जैसे स्वहित ही प्रतिक्षन बढ़ती जाती...अंतहीन तृषा... नि:शब्द...मौन...हो जाना चाहती...भीतर खो जाना चाहती...युगों से जहाँ से चली थी...जहाँ से आगाज़ हुआ...उसी आगाज़ में अंतर्लीन हो जाना चाहती है...हा... पर रोक ली जाती...भीतर ही से...आह "किंचित ठहरो...अभी नहीं अंत तुम्हारा...आस्वादन हेतु..." किसका आस्वादन...स्व का...नहीं...नहीं तो किसका...उस आगाज़ का जो प्राणवायु बन रगों में दौड़ रहा...बहा रहा...नवनीत सम...अभी और...अभी और...आस्वादन हेतु रोक लेता...कि अभी मन भरा नहीं...छलकने से रोक लेता छलका कर भी...हिय से हूक उठती नयनकोरों से बह जाने को...पर वह रोक लेता..."ना...

रस सरसिली श्यामा जु , संगिनि जु

"रस सरसीली श्यामा श्यामा" सरस पिय प्रियप्यारि दोऊ बिराजै कुंजनि टकटक निहारि फूलन कौ बंगलो फूलि फूलन सखि सारि कमल कमलिनि खिलै पुंज परकासै चंद दोऊ चारि देख जिन छबि चंद्र चकोर भए तिन प्रेमसखि बलिहारि !! 'मधुर सुर तनप्राण निरंजन सुनंदिनी नंदन... ... ...' अहा !!मधुर ध्वनि करतीं प्रियश्यामा जु की पैंजनियाँ यमुना पुलिन पर से...रूनक झुनक...रुनक झुनक...सहसा सुनाई देती हुईं पवन की सरसराहट संग एक कुंज की अटरिया पर से होते हुए कालिन्द नंदिनी की अविच्छिन अति सुकोमल लहरियों में घुल मिल जाती है... जलतरंगों की लहरियों में सोंधी सोंधी सी महक उठ जैसे ही पवन का स्पर्श पाती हैं...श्यामा जु खिलखिलाकर हंस देतीं हैं... कजरारे श्यामल नयन कोरों से श्यामा जु समीप आतीं सखी को वहीं रोक देतीं हैं और छन...छन...छन...नूपुरों की ध्वनि करतीं वहाँ से उठ मंद मुस्कान लिए अपनी वेणी से पुष्पों की वर्षा करतीं और श्रीचरणों से यमुना जल को छपछपातीं हुईं दूसरे कुंज की तरफ चल देतीं हैं... आज उनकी चाल मयूर सी थिर...थिर...और नृत्य की सी मुद्राएँ करती ऐसी है जैसै मदमस्त गज सी वे खोई खोई सी गलियों कुंजों क

प्यारी जु की परिमलता 2, उज्ज्वल रस , संगिनी जु

श्रीअंग परिमल-भाग 2 "श्री जी से अनन्य होई वांके हृदय की सौरभ अनुभूत कर री...प्रियतम की मूल सौरभ जे ही...प्रियतम प्राणन की सौरभ...प्राण वायु उनकी श्रीजी अंग सौरभ"... ... ...अहा !! सखी री...जे महक कौ तू सही कही पर जानै है जाको मूल री...जे तो हमहिं जानै ना कि स्यामा जु कौ स्वरूप स्यामसुंदर सौं अभिन्न है री...और यांके मूल में श्यामसुंदर ही श्यामा जु ह्वै...कोई भेद ना है री...एकहु रस...एकहु महक...एकहु मूल...दोऊ जैसे एकहु फूलनि के मकरंद रसनहुं सौं महकै चहकै रह्वैं...बस रसबर्धन हेत द्वैरूप... स्पष्ट जानै तो मूल कौ बरनूं री...कमलिनी पुष्प बनै ते पूर्व एकहु कली होवै ना...सम्पूर्ण महक यामैं भरी सिमटी रह्वै...केवल कमलिनी काहे...सर्व कौ मूल की जेही परिभासा रह्वै...नवजात शिशु हो या नवप्रफुल्लित ललित नवसुवासित कस्तूरी चंदन लता बल्लरियाँ...सबनहुं को मूल ही महकै चहकै और महकावै री...परमात्मा आत्मा की महक कू चाहवै...यांकी मूल की महक कौ पान करन कै तांई मथै है यांकै आवरण कौ...मृग स्वैनाभि की महक तांई थिरकै सरकै...चकोर चंद्र तांई...घन दामिनी तांई...शिशु ममता तांई...सबनहुं कौ सबनहुं कै मूल सौं

प्यारी जु की परिमलता , उज्ज्वल श्रीप्रियाजु

"राधै तन फूल्यौ मदन बाग" सुरभ परिमल श्रीप्रियाजु श्रीवेणु...सखी...श्रीवेणु को सुनती हो ना...आह... ... ... हाँ...खूब भावै है ना प्रति रव तोहे...चोखो लगै है...खूब आनंद रस मिसरी सम घोलै है तोंमे...अरी...खूब गहरो सुनै है नाम इसमें प्यारे की प्यारी जु का...आह... ... ... पर जानै है यह राधा नाम यूँ ही ना प्रकट है जावै री... सखी...श्रीवेणु में प्राण फूँकते यह मधुर रसस्वर किंचित वाचिक ना हैं री कि कोई फूँके और राधा नाम श्रवण होई जावै... सखी री...इस श्रीवेणु में राधा नाम फूँकने के तांई भी एक रसतृषित रसातुर आनंदरस से परिपूर्ण पर चकोर... एक रिक्त हृदय चाहिए री...सरस...निश्चल...ना...केवल इतना ही नहीं...एक रसपिपासु जो छका हो उस रूप सौंदर्य माधुर्य लावण्य से इतना कि उसकी श्वास श्वास से महक...सुवास...सौरभ आ रही हो उस श्वाससौरभि प्यारी की श्वासों की...जो स्वयं की महक को भुला कर केवल उसी की महक से श्वास भर इस मुरलिका में भर रहा हो...अहा ! सखी री...प्यारी जु की यह अद्भुत निर्मल सौरभ ही तो है जो प्राणप्रियतम की रग रग में...उनकी रगों में सुवासित हुई मंथर मंथर रसप्रवाह करती जिसे प्रियतम नित