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Showing posts from May, 2018

सुविलासा उज्ज्वल श्रीप्रियाजू भाव रस संगिनी कृपा

*सुविलासा* "प्यारी तेरी बाँफिन बान सुमार लागै भौहैं ज्यौं धनख। एक ही बार यौं छूटत जैसे बादर वरषत इन्द्र अनख।। और हथियार को गने री चाहनि कनख। श्रीहरिदास के स्वामी स्यामा कुंजबिहारी सौं प्यारी जब तू बोलति चनख चनख।।" कैसे कहूँ सखी री इन नैनन की बात... ! रतनारे...अनियारे...कजरारे... ! अहा...ये ऐसे री...जैसे सम्पूर्ण प्यारी जू की रसीली कटीली सजीली रूपमाधुरी से छके पगे...अनुपम माधुर्य की मधुर झलकन भर से चंचल हुए भ्रमर सम उड़ उड़ जाते और फिर रसभरे कैद इन नयनों की चपलता में छलक छलक जाते री...सहज सजल ये नयन की पुतरियाँ जैसे जादूगरनी सी...इनमें अटके पियनैन अन्यत्र कहीं देखना विस्मृत कर चकोरवत् ठहरे से रह जाते...जब जब रुकते री...पलक सम्पुट लट...आतुरतावश अकुलाने लगते पियनैन...लम्पट लव निमेश अंतर तें...निमिशभर...अल्प कल्प सत्सार..अल्पकाल भी कल्प समान बीते... ... ... ...*मेरी लाड़ली राजत रंग भरी*... ... ... बांस की लकड़ी पर तीन अंगुली भर का स्पर्श... गौरचंद्रिका नख की किंचित रसभरी छुअन...प्रियतम तान देतीं नयन मुंदे प्यारी नयनन की मनमोहिनी झाँकी पर लुटे...हिय हारे से करकमल में सुप्त पड़

"गाम्भीर्यशालिनी"भाग - 2 उज्ज्वल श्रीप्रियाजु

"गाम्भीर्यशालिनी"भाग - 2 *ऐसी तौ विचित्र जोरी बनी। ऐसी कहूँ देखी सुनी न भनी।। मनहुँ कनक सुदाइ करि करि देह अदभुत ठनी। श्रीहरिदास के स्वामी स्यामा तमालै उछंगि बैठी धनी।।* अरी सखी...निरख तो सम्पूर्ण वृंदावन माधुर्य रस में छका हुआ...ये गिरि गौवर्धन तो सर्व रूप गह्वर वन की लता पताओं से सुसज्जित प्रफुल्लित रहता री...और ताकता बरसाना की रसीली रंगीली सुघर हरित रसभरी ऊँची अट्टारी को... ये रसीली कौ रस ऊँची ठौर से महक उड़ा ले आता और सगरे कुँज निकुँजों को भरन पोषण कर संवारता व श्रृंगार धराता री...ये प्यारी सुकुमारी जू की कोमलता को निरखता और निरख निरख ना अघाता... *नैना प्रगट करत पिय प्रेमें। झूठेई ऊतर कत ठानति छाँड़ि मान के नेमें।। कोप कपट कौ अधर कम्प सखि अति हुलास हृदै में। श्रीवीठलविपुल बिहारी नग वर जटित सु तुव तन हेमें।।* सखी री...कहने मात्र को ही दुलारी मनमानिनी हुई ऊँची ठौर तें बिराजती री...गहरी चतुरई और गम्भीरता से रस भर भर उंडेलती सम्पूर्ण धाम में...कहलाती ऊँची ठौर वाली पर बिनके हिय में गाम्भीर्यता संग कोमलता समाई जो हितरूप सदैव उज्ज्वल उन्माद भरती प्राणप्रियतम के रसतृषित स

गाम्भीर्यशालिनी उज्ज्वल श्रीप्रियाजु

*गाम्भीर्यशालिनी* "भूलै भूलै हूँ मान न करि री प्यारी तेरी भौहैं मैली देखत प्रान न रहत तन। ज्यौं न्यौछावर करौं प्यारी तोपै काहे तें तू मूकी कहत स्याम घन।। तोहिं ऐसें देखत मोहिंब कल कैसे होइ जु प्रान धन। सुनि श्रीहरिदास काहे न कहत यासौं छाँड़िब छाँड़ि अपनौ पन।।" सिंहनी का दूध कुंदन के पात्र में ही समा सके ना सखी...और कोई धातु ना भर सके...और ना सहेज सके इसे... आलि री...अब पहले तो पात्र भरने के लिए ही कुछ ऐसी बुद्धि चाहिए कि सिंहनी उत्तेजक ना होकर प्रेरक बने...इतना आसान तो नहीं ना... एक बालक जिसे तनिक भी समझ ना है और उसे माँ के अलावा कोई समझ सके ऐसी समता सामर्थ्य भी और किसी में ना होवे...अब कोई अत्यंत रसीला हो और उस छलकते रसीले को रस की चाह ही उत्कण्ठित करे तो उसके रस को बिन चखे कोई अतीव रसीला ही उसे सहेज कर और भरे ना...ना समझी ना... अरी... इतना सरल होता प्रेम तो अपात्र भी भर लेता...पर स्वयं को रिक्त कर भर पाने के लिए अहम् का त्याग भी हो और तत्सुख की अहमता का गहनतम प्रेमभाव भी...अहा... ... ... पर ऐसा सम्भव क्या ? नहीं ना...तो पात्रता हांसिल करना और उसे सहेज कर रखना कोई लड़