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हरि अब द्वापर , तृषित

हरि अब द्वापर लें चलो , कलि मोहे क्षण क्षण खाबे
जो नाम धन हिय सींचूँ , कलि फेकत धन स्वांग धराये ।।
इनका नाम जगत में सर्वस्व सुंदर साक्षात् कृपामय धन है । सहजे धनी बने । और हम गरीबो (भजनहीन) पर दया करें । नाम के संग दुर्व्यवहार से नज़र नहीँ चुरानी । फ़र्क पड़ना चाहिए । कुछ सम्भव तो होना चाहिये । नाम केवल प्राप्ति का साधन नहीँ । बल्कि उत्कृष्ठ प्राप्त रस सुख ही है , उन्ही का संग है नाम में । अतः नाम के संग दुराग्रह स्वीकार्य न हो , इससे जीवन सिद्धांत बाधित हो तो हो , नाम की रक्षा रहे , धन कहने भर को नहीँ । किसी की हानि नहीँ , अवमानना नहीँ , बस नाम के सम्मान हेतु । वस्तुतः तत्वगत जगत के किसी भी दुर्व्यवहार आदि कार्य से दिव्य सृष्टि को फ़र्क नहीँ पड़ेगा । परन्तु यहाँ प्रेम में नाम के संग खिलवाड़ में असहज होना स्वभाविक और ना होना आश्चर्य है । --- पीड़ा होती है , जब बार आदि व्यवसाय का नाम भी ...... /- सत्यजीत तृषित ।।

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