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भाव हर्षिणि के

सखी में ही पा गई पिया को बावरी

ढूँढ फिरा कोई जग सारा
कोई ढूंढिया मंदिर खलियानों में
मैं ढूँढिया भीतर आपने
भीतर ही पाए लियो
पिया से करके प्रेम
भीतर ही जग बसाए लियो
खुद ही हंसु
कभी रोऊं भी

कृष्ण कृष्ण करती थी
हर साँस से हरि को भजती सी
प्रेम रोग में छिन छिन
चुपचाप ही आहें भरती थी
न कोई अपना न बेगाना
खुद से भी खुद अंजानी थी

न जाने कब क्या सूझा निर्लज को
खुद को भीतर से निकाल
बाहर का पंथ सजाए दियो
अंधी पिया प्रेम में
बावरी ने भी उस पथ पर पग धर ही लियो
गुमनाम सी छवि का अब
नाम पन्नों पर उघड़ने लगा
सलोनी सांवल सरकार की
प्रेम दीवानी बन रोआं रोआं महकने लगा

अचानक इक दिन इक प्रेम पुजारिन
उस पथ पर मोहे थाम लियो
नख शिख तक ढकी सी
पिया का पता बताए दियो
मैं भी पगली
अपने दिल का हाल सुनाए दियो
प्रेमी विरहन कह करके
उसने मुझे बेनकाब किया

मैं पिया का ही मुख देखुंगी कह
उससे मुख फेरती रही
देखा अनदेखा कर उसको
खुद से दूर रखा भी
पर न मानी सखी वो
जिद पिया प्रेम की मुझमें अटल
देख मुझे अंक लगाए लियो
सकुचाई और डरी सहमी
खुद को मैं संभाल न सकी
बिंदिया सिंदूर भूल गई सब
चुनरी सरकी का भी भान नहीं
इक अदना सी बूँद सागर में समाए गई

तब ही तो पिया को निर्लज कहा
रस पीवन की खातर
मुझसे ही पिया ज्यों
एक से दो हुए।। हा सखी।।
हम एक से ही दो हुए
सांवरे के जैसे अंक लग
'संगिनी'से उनकी'हर्षिणी'हुई

जब आँख खुली
तब फिर तनहा ही
रोई चिल्लाई कुरलाई बहुत
पर कोई वहाँ था ही नहीं
कोई वहाँ था ही नहीं

मिलन से पहले संग संग थी
बलिहार ऐसन सखी के
जो पिया को सनमुख ले आई
अब का हाल कहुं किसे
प्रेम वियोग में जल रही
किससे कहुं अब अपनी दशा
किसी को अंक अब लगाया नहीं
किसी में भी वो प्रेम कभी पाया ही नहीं

क्या किया पिया तूने ये
ऐसी विरह वेदना जगाई क्यों
तड़पुं अब ज्यों
जल बिन मछली
पर पिया प्रीत मिलन की आस में
मरना भी अब हाथ नहीं

लगता है अब ऐसा मौन ही हो जाऊँ
फिर तड़प ऐसी उठती है
बिन कहे रह न पाऊं।
छुपाया तो बहुत
चाहुं अब यही ही
कि छलिया से प्रेम न करती
रहती भावविहीना ही
रहती भावविहीना ही।।

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