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त्यागमयी प्रेमयात्रा 2

राधे राधे .... त्याग अगर वस्तु , तन -मन फिर भावना तक उतर जाएं तब सामान्य दैनिक क्रिया ही प्रेमरस बन जाती है । परन्तु यहाँ विशेषतः एक बात देखने में आई , पहले कह दिया जाएं कि बात यहाँ प्रेम पथ की है , सो .....
हमने कह दिया , तन भी प्रभु का , मन भी । पर अगर दिया हो तो सुख की आस नहीँ रहे । अध्यात्म जगत में आया जाता है मूल आनंद की तलाश में । यानी भीतर अपने सुख की भावना है ऐसा सुख जो कभी बीते ना ऐसा परम् रस , परम् सुख । परन्तु वास्तव में प्रेम मयी गोपी और राधा जु यहाँ जो भावना बताती है , उनका चिंतन ही सब स्वांग को सूखा बना देता है । एक और तो हम सर्वस्व के त्याग को दर्शाते है भीतर अभीप्सा है , स्वसुख की । अर्थात् तन-मन और आत्मा दी ही हो तो वो कौन है जिसे आनन्द की लालसा बनी हुई है , सुख की चाह है । प्रेम का मूल रूप है - तत्सुख । कृष्णसुख । और जब भी कृष्ण सुख की बात की , सब का इनरेस्ट फुर्र हो गया । जब कहा कि सुख का छींटा भी अपने तक न हो । आनन्द (कृष्ण) में डूब जाओ पर उस आनन्द की भनक तुम तक न हो । तुम से आनन्द के रस का वर्धन हो , ना कि आनंद से तुम्हें आस कोई चाह । यहाँ पूरी निष्कामता चाहिए , हालांकि स्वार्थ खत्म होने से बहुतों की रूचि कम हो जाती है तो पहले ही निवेदन करुँ त्याग जितना गहरा होगा रस उतना महकेगा। यहाँ इत्र को मथना है तब सुगन्ध बिखरती ही जायेगी । त्याग को दिव्यता की ओर ले जाना होगा । अगर ऐसा मानते है कि हम प्रेम पथ पर है तो दो पलड़े बना लीजिये कृष्ण सुख और स्वसुख । तब हर बार देखिये कि क्या किसी भी रूप में आपने सुख चाहा तो नहीँ , हर बार जो भी हो उसमें कृष्णसुख का पलड़ा भारी होता जाएं , इस भावना को पूर्ण करने में कर्म नहीँ लीला होगी क्योंकि कर्म में कृष्ण सुख है ही नहीँ । लीला में है ।  सीधी सी बात में कहूं तो ईश्वर से मिलन हो तो मानव देह मिली उससे पहले तो वृक्ष लता ही थे , वहीँ भावना अब हो जाएं अपना कोई सुख नहीँ , अपने फल को वृक्ष नहीँ खाता । अपने पुष्प से स्वयं तृप्त नहीँ होता , ऐसी ही स्थिति हो जाएं , जब सर्वस्व के त्यागी होने कहा हम कहते है , मेरा कुछ नहीँ , तन मन सब उनका , आत्मा भी उनकी तो वह कौन है जिसे सुख चाहिए । आनन्द अग़र संसारी तक जाएं तो वें उसे संसार का सुख ही बना देते है , जैसे सभी मन्दिर जा कर वस्तु आदि की चाह कर लेते है । ऐसे ही आनन्द प्रेमी के पास है और तो प्रेमी अपना नहीँ प्रियतम का सुख ही विचारेगा । अपने भोजन में भी प्रियतम का सुख हो । क्योंकि देह आदि अपनी नहीँ उनकी ही है , सब क्रियाएँ उनके हेतु हो । चूँकि प्रेमी सर्वस्व अर्पण कर चुके ही है तो भाव मय रूप है उसकी एक ही आस रहे कृष्ण सुख (तत्सुख) । अगर किसी क्रिया से उस प्रेमी जीव का तो हित दीखता हो परन्तु कृष्ण हित न हो तो उस क्रिया से  कितना ही लाभ हो उसका त्याग हो और ग्लानि भी ना हो । पहला त्याग है जड़ मय , भौतिक वस्तुओं का संसार का जो कि अपना है ही नहीँ और यें ही त्याग सही नहीँ हो पाता तो भाव मय सुख की इच्छा का त्याग कैसे हो और कृष्ण सुख को ही कैसे जिया जाएं । फिर इससे भी ऊपर का त्याग है दिव्य रस में दिव्य त्याग । परन्तु पहले इन त्यागों को करा जाएं तो जीवन कृष्णमय हो जाएं , यहाँ एक बात और मैंने देखा प्रेम के लिए कोई मना नहीँ करता परन्तु अपने सुख का वियोग और कृष्ण सुखेच्छा कुछ करना बनता भी नहीँ । बन जाएं तो कटौती में गंगा आ ही जाएं । उनसे प्रेम है ही तो भगवान के ही सुख में अपना भी सुख होगा और फिर प्राप्त सुख की भावना के त्याग से भगवान का और रस वर्धन होगा और यहीं क्रम ज़ारी रहेगा .... भगवान जहाँ सर्वस्व हो वहाँ सदा रस और आनन्द है । उनकी ही इच्छा सच्ची इच्छा और उनका ही रस सच्चा रस और उनका ही सुख सच्चा सुख है । और यें सब सच्चा नहीँ दिव्य है , अप्राकृत है , परम् है । कुल मिला कर भगवतेच्छा में ही सारा रस है ।
अब भगवान को देखना सबको है , मिलना भी है । होना भी है , परन्तु उनके होने हेतु उनके होने की योग्यता को कोई समझ नहीँ रहा । अपना मूल स्वरूप और रस समझ , सांसारिकता में अभिनय करते हुए , भीतर से होना है , उनका । केवल कह कर नहीँ । और फिर अपना सम्बन्ध और सब रस भगवत् संग में ही जानना और जीवन को उनकी ही इच्छा से बिना भौतिक लालसा के निर्वह करना । समस्त भोगों को भगवत् अर्पण ही करना । अब जैसे माने कि कह दिया जाता है कि वस्तु की लालसा न हो , स्वर्ण आदि में मोह न हो , पाप बढ़ता है । वही फिर समाधान है किसी भी वस्तु को भगवान को अर्पण कर प्रसाद मान धारण करें । मान लें फिर कोई स्वर्ण आभूषण आप ने लिया । यहाँ पाप का भय और त्याग की खाना पूर्ति  के लिए फिर भगवान को अर्पण होगा , फिर धारण कर लिया जायेगा ,यहाँ भक्ति भी रही , भौतिकता भी ना छुटी यें आज कल प्रचलन में है ।
यहाँ वस्तुतः भगवान को कोई मज़ाक ही समझ लिया जाता है , भई अंगूठी ली , किस के नाप की ली , स्वयं के , पहन कर भी देखी होगी । अर्पण भी की तो यें नही आपकी है भगवन् , दिखाई और पहन ली । मान लिया कि अपने लिए लाई वस्तु को भगवान को उनकी कहेंगे तो वें मान लेंगे , जैसे वें मानसिकता समझते ही नही ,  भीतर तो इच्छा है तन को सजाने की । हाँ तन को सजाना भी उनके लिए हो तब आनन्द है , वस्तु का पहनने में धारण करने में अपना नहीँ भगवान का सुख हो , तब अलग बात है । परन्तु यहाँ फिर पूरी तरह भगवां की इच्छा ही हो , अपनी नहीँ ।
अधिकत्तर लोग तो अब बीमा पॉलिसी की तरह समझते है भगवत् सम्बन्ध । भगवान के इस लिए होते है कि इमरजेंसी में मायरा भरेंगे , नोकर बन जायेंगे , हमारी परेशानी दूर करेंगे इत्यादि । यें सब तो काज तो भुत प्रेत पिशाच भी कर लेते है , फिर तो उनसे जुड़ना चाहिए । जब भी कोई भगवान से जुड़ कर अपने बिगडे काज को सही करने का कैसा भी दृष्टान्त देता है तो भीतर मन में आता है इन्हें भगवान नहीँ जीन की जरूरत है । जो काम नगर पालिका में हो , उसके लिए संयुक्त राष्ट्र संघ की मीटिंग हो तो क्या समझदारी है क्या ? मनुष्य भक्ति करता है परन्तु विचार करना चाहिए कि भक्ति किस हेतु की ? संसार को रिझाने हेतु या भगवान को रिझाने हेतु ।
अगर वास्तविक भक्ति है तो वस्तु मात्र की सेवा आपको सन्तुष्ट न करेंगी , बैचेनी होगी कि कुछ विशेष सेवा हो सके और धीरे-धीरे दिव्यतम सेवा सामने होगी । जीवन में सन्त हो , सत्संग हो पर वो भी ऐसा नहीँ जो कहे कि आप बड़े भक्त हो , ऐसा सत्संग हो , जो अनुभूत् कराये कि हम भक्त ही होते तो आज भगवान के संग ना होते , उनके रस में सदा ना रहते । जीवन ऐसा होता है प्रेमी का जैसे सगाई हो चुकी कन्या , अजीब सी बेकरारी सदा । संग ना हो संग का एहसास ही संग को रसमय करता है । फिर प्रेमी का विवाह है इस घर से उस घर जाना , अर्थात् जिसे मृत्यु कहा जाता है वहीँ प्रेमी की विदाई है । .... पिया के घर की । अतः प्रेमी के जीवन में प्रेम आने से मृत्यु तक का प्रत्येक क्षण महत्व रखता है क्योंकि इससे मिलन की उत्कंठा बढ़ती है । प्रेममय जीवन ही सगाई है । इस जीवन में बहुत बार प्रियतम से मिलन होता है , परन्तु एक तो उनसे जो मिलता है उसे वें अपने अनुकूल बना लेते है और फिर उस मिलन का महत्व और इस लिए है कि प्रेम दो नहीं एक कर देता है , अतः आभास भक्त का होता है परन्तु नित्य भगवान भी संग है , और जहाँ जितनी अपने को जीने की लालसा कम है वहां उतने अधिक भगवान ही जीवन जी रहे है । देखने में तो है जीव , पर भीतर ईश्वर स्वयं रस हेतु प्रगट है और कुछ दिव्य रसमय अनुभव यहाँ जगत पाता है । परन्तु स्व की लालसा ना होने और अपने सुख का त्याग ही इन स्थितियों तक लें जाता है । जिस पात्र में मिट्टी भरी हो वहाँ हवा भी उतनी नहीँ , अतः हम जितना अपने भीतर को खाली करें उतना ही ईश्वर का आवेग प्रगट होता है , जिससे साधारण तन कभी स्पंदित , कम्पित और मूर्छित तक हो ही जाता है । फिर भी तन का यें दर्द हजारों ख्वाहिशों से परम् सुंदर ही होता है । जब तक हम अपने को जी रहे है ईश्वर कैसे अनुभव में होंगे , त्याग से अहम् हटने लगता है और धीरे या उत्कंठा तीव्र होने पर शीघ्र भी , प्रेम होने से मेरापन जाने लगता है और प्रियतम् उतना ही समाने लगते है । प्रेम आपको रिक्त करता है और फिर ईश्वर तक स्वतः निमंत्रण जाता है , अगर भीतर रिक्तता ना घटी आप हो तो बिना गुम हुए प्रियतम् आने नहीँ , हम जाएं तब ही वें होंगे यही इसी तन में भी । प्रेम एकाकीकार चाहता है अतः आप उन्हें दो करना ही ना चाहोगे , या तो आप रहें , या आप में आप न रहे तो फिर ईश्वर और आप को ईश्वर में रहना हो तो या तो दिव्य लीलायें , या विवाह रूपी विदाई । उनमेँ होने हेतु । स्वयं को जगत खाली नहीँ कर सकता , प्रेम पात्र बनना सहज नहीँ अतः मृत्यु के बाद मिलन का विचार होता है , जो यहाँ दूर रहा वहाँ का क्या पता अतः त्याग करें भीतर तक के और गहरे प्रेम पथ को सहज कर चल पड़े । इससे और भी एक त्याग और गहरा होता है , दिव्य त्याग । प्रेम रुकता नहीँ , क्योंकि प्रियतम् के सुख में देने की भावना में नित्य त्याग बना होता है । विचार करें और दो सरल साधन करें , अपने सुख का त्याग प्रियतम् के सुख की इच्छा । और भीतर रिक्तता (खालीपन) । और एक बात त्याग की भावना में मन कहीँ नहीँ भटकता सो मन की चिंता न करें , मन कहीँ और हो और आप कोई त्याग कर सकें सम्भव नहीँ । अतः त्याग मन को नियंत्रण होने पर ही होता है और यहाँ मन का नियंत्रण सहज होगा , जय जय श्यामाश्याम , सत्यजीत तृषित !  दिव्य त्याग की बात यूँ ना की जा सकेगी अतः यहीँ तक !! लाडिलीलाला युगलपदरज शरणम् !!

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