प्रेम साधना पथ के लिए भाई जी का पद --
प्रथम साधना है इसकी-इन्द्रिय-भोगों का मन से त्याग।
हरिकी प्रीति बढ़ानेवाले सत्कर्मोंमें अति अनुराग॥
कठिन काम वासना-पापका करके पूरी तरह विनाश।
दभ-दर्प, अभिमान-लोभ-मद, क्रएध-मान का करके नाश॥
परचर्चाका परित्याग कर, विषयोंका तज सब अभिलाष।
मधुमय चिन्तन नाम-रूपका, मनमें प्रभुपर दृढ़ विश्वास॥
हरि-गुण-श्रवण, मनन लीलाका, लीला-रसमें रति निष्काम।
प्रियतम-भाव सदा मोहनमें, प्रेम-कामना शुचि, अभिराम॥
सर्व-समर्पण करके हरिको, भोग-मोक्षका करके त्याग।
हरिके सुखमें ही सुख सारा, हरिचरणोंमें ही अनुराग॥
भोग-मोक्ष-रुचि-रहित परम जो अन्तरंग हरिप्रेमी संत।
उनका विमल सङङ्ग, उनकी ही रुचिमें निज रुचिका कर अन्त॥
पावन प्रेमपंथके साधक करते फिर लीला-चिन्तन।
श्यामा-श्याम-कृपासे फिर वे कर पाते लीला-दर्शन॥
गोपी-भाव समझकर फिर वे होते हैं शुचि साधनसिद्ध।
रस-साधनमें सिद्धि प्राप्तकर पाते गोपीरूप विशुद्ध॥
तब लीलामें नित्य सिमलित हो बन जाते प्रेमस्वरूप।
परम सिद्धि यह प्रेम-पंथकी, यही प्रेमका निर्मल रूप॥
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कर्म, योगपथ, जान-मार्गके सिद्ध नहीं आते इस ठौर।
वे अपने शुचि विहित मार्गसे जाते सदा साध्यकी ओर॥
राधा-कृष्ण-विहार ललितका यह रहस्यमय दिव्य विधान।
दास्य-सय-वात्सल्यभाव में भी इसका नहिं होता भान॥
व्रजरमणीके शुद्ध भावका ही केवल इसमें अधिकार।
वहीं फूलता-फलता, इस उज्ज्वल रसका होता विस्तार॥
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