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Showing posts from October, 2016

अचरत बृज कौ जन-जन , मंजु दीदी

अचरत बृज कौ जन-जन देखि गिरि रूप चकित हुलसत मन। करत नमन श्यामसुंदर बृजवासिन संग। प्रभु आज हौं सब देख्यौ साक्षात रूप गोबरधन। अज्ञ अनजान हम,ज्ञान दियौ नंदनंदन, हुवै दरसन। हमारौ गो-धन, भू-धन बृज बाढ्यौ दिन दिन। एतैहिं एहौं, दिव्य किरीट भूषण धारी गिरि भयौ अंतर्धन। तद ब्राह्मण जीम्यै, जीम्यौ बृज कौ प्रति जन। करत परिक्रमा सजि धजि 'मँजु'गिरि गोबरधन की मुदित जन। (डाॅ.मँजु गुप्ता) +++++++++++++++++++ इक अंगुलि परि धरि गिरि गोबरधन ठाड़े कृष्ण कन्हाई अति कोमल तन, गोप जन लै लै लकुटि लगाई। राख्यौ सत दिवस, इकहुँ डग इत उत जनि पाई। देखि गिरि-तल जल, शेष-सुदर्शन निवारण हेत बुलाई। चक्र सुदर्शन पीवत जल-धार अगस्त मुनि नाई। चक्करहिं लै गोल भयौ शेष, गिरि तल-तट प्राचीर बनाई। रोक्यौ जल प्रवाह ज्यौं तट भूमि रहत समुद्र सहाई। इकटक ठाड़े श्यामसुंदर लखत गोप विनहिं मुख 'मँजु' चकोर नाई। (डाॅ.मँजु गुप्ता) ++++++++++++++++++++ अपलक निरखति जसुमति मैया ऐतिक बल बूझि कहाँ तै लायौ कन्हैया। बृजजन बूझत कौन तेरौ सुत, कहाँ तै पाई मैया? हौं ठगि कत कहिहौं, सात बरस की उमरिया। उठाल्यौ गिरि सा

कान्हा और मित्र मण्डली , अमिता दीदी

कान्हा और मित्र मण्डली ~~~~~~~~~~~~~ एक बार कान्हा जू का प्यारा सखा मधुमंगल उनसे रुष्ट हो जाता है। उनसे कहता है कान्हा तुम सब सखाओं से प्रेम करते हो और उनको सब मिष्ठान खिला देते हो। मेरा तो तुम ध्यान ही नहीं रखते। मुझे लड्डू भी नहीं दिए। मैं एक निर्धन ब्राह्मण हूँ न इसलिए तुम मुझसे इतना स्नेह नहीं रखते। अब कान्हा जू तो सखाओं के सखा हैं उनका कोई सखा उनसे रुष्ट हो जाये ये तो उनको कभी स्वीकार ही नहीं। मित्र मण्डली में प्रेम बढ़ाने हेतु लीला चलती रहती है।     मधुमंगल अत्यधिक रुष्ट हो जाते हैं। उनके हृदय में अपने सखा के प्रति अत्यधिक प्रेम उमड़ता है तो उसे छिपाने हेतु वो झूठमूठ में अपने सखा से झगड़ते हैं। कान्हा तुमने मुझे लड्डू भी नहीं दिया देखो सभी मित्र सुमंगल ,श्री दामा सब मुझे चिढ़ा रहे हैं। सभी मित्रों को लड्डू खिलाये हो और मेरी बारी सब खत्म। अभी कान्हा अपने मित्र को आँख बन्द करने को कहते हैँ। मधुमंगल जानता है ऐसे तो कभी हो नहीं सकता कान्हा मुझे भूल जाएँ और मेरे लिए लड्डू नहीं रखें । अवशय ही इन्होंने अपने पीताम्बर में छिपा रखा है। इधर नटखट कान्हा को जाने क्या शरारत सूझती है मधुमंगल के

युगल रूप , अमिता दीदी

युगल रूप ~~~~~ एक सखी बहुत सुंदर पायल लेकर स्वामिनी जू की सेवा में जाती है। मन में यही भाव आहा ! आज तो मेरे अहोभाग्य मुझे श्री जू के चरण छूने का सुअवसर मिल रहा । श्री जू के कोमल चरणों को छू पाऊँगी मैं। कहीँ मेरे स्पर्श से कोमलांगी श्री किशोरी जू को कष्ट तो न होगा। मन में यही भाव लिए श्री जू की और चलती है। हृदय में स्वामिनी जू का नाम ही ध्वनित हो रहा है। राधा राधा राधा ........      मार्ग में उसे कान्हा रोक लेते हैँ और उसे कान्हा भी आज श्री जू दिखाई पड़ते हैँ। राधा जू मैं तो आपके पास ही आ रही थी। आज मुझे आपके चरणों को छूने का सौभाग्य मिला है। ये पायल मुझे आपके चरणों में अर्पित करनी है। अरे बाँवरी ! तुझे क्या हुआ है मैं तुझे राधा दीख रहा हूँ । ये क्या लाई है तू राधा जू के लिए। सखी कहती है स्वामिनी जू ये पायल आपके लिए ही तो लाई हूँ । कान्हा उसके हाथ से पायल पकड़ लेते हैँ तो सखी कहती है प्यारी जू मुझे अपने चरण न छूने दोगी । लाओ मैं पहना दूँ । कान्हा कहते हैँ बाँवरी तू आज भर्मित जान पड़ती है। यहां बैठ जा। तभी कान्हा अपनी बाँसुरी निकालकर बजाने लगते हैँ। कान्हा की बांसुरी तो एक ही नाम पुकारती

नृत्य प्रतियोगिता , अमिता दीदी

नृत्य प्रतियोगिता ~~~~~~~~ एक बार श्यामसुन्दर के मन में श्री किशोरी जू और उनकी सभी सखियों का नृत्य देखने की इच्छा हुई। नटखट कान्हा अपने सखाओं से बोले यदि हम एक नृत्य प्रतियोगिता रखें और इन सब गोपियों को हरा दें तो कितना आनन्द हो। उनकी शरारती मित्र मण्डली उछल कूद तो खूब जाने पर नृत्य करना सबके बस की बात कहाँ।      श्यामसुन्दर ने नृत्य प्रतियोगिता की बात श्यामा जू और उनकी सखियों से कही जिसे श्यामा और सब सखियों ने हँसकर स्वीकृति दे दी। इस नृत्य प्रतियोगिता में जितने वाले को हारने वाले से अपनी मनचाही बात मनवानी थी। प्रतियोगिता के लिए उपयुक्त स्थान और समय नियत हो गया।     श्यामा और उनकी सारी सखियाँ तो नृत्य संगीत में अद्भुत प्रवीण थीं। सब ताल से ताल मिला नाचने और गाने लगीं। दूसरी और नटखट मित्र मण्डली को उछल कूद से ना फुर्सत मिले न ही नाच गान के लिए कोई प्रयास हुआ।       प्रतियोगिया का दिन पास आ गया अब श्यामसुन्दर अपने सखाओं से कहते हैँ यदि हमने अभी भी कोई प्रयास नहीं किया तो हमारी नाक कट जावेगी। सब सखा बेसुरी ताल दे गाने और नृत्य का अभ्यास करने लगे। आहा ! उनके इस प्रयास को देख श्यामा औ

राधा पूछे राधा कौन , अमिता दीदी ।

राधा पूछे राधा कौन ~~~~~~~~~~~ एक बार श्री राधा अपनी सखियों के संग यमुना किनारे बैठी होती हैँ। सभी सखी आपस में श्री राधा और श्यामसुन्दर के प्रेम की बातें करती हैं। कोई कहती है राधा के रोम रोम में श्यामसुन्दर बसे हैँ । राधा के समान श्यामसुन्दर को कोई प्रेम नहीं कर सकता। राधा का हृदय केवल श्याम के लिए धड़कता है।             कोई सखी श्यामसुन्दर का राधा से प्रेम बखान करती है। श्यामसुन्दर सदैव राधा जू की सेवा को लालयित रहते है। श्याम को हर और राधा ही राधा लगती है। श्री जू बैठी बैठी सब सुनती है। उनके हृदय में राधा और श्याम के प्रेम का आस्वादन इतना बढ़ जाता है कि स्वयम् को भूल ही जाती हैँ। मन में राधा श्याम के प्रेम का ही चिंतन चलता रहता है।       श्री जू बहुत उदास होकर बैठ जाती हैं। स्वयम् का राधा होना ही भूल जाती हैँ। मन में यही चिंतन श्याम राधा के हैँ। राधा श्याम की है। दोनों का प्रेम नित्य है। हा ! मैं श्याम को प्रेम नहीं दे पाई। मुझसे श्याम को कोई सुख नहीं हुआ। राधा मेरे प्रियतम श्याम को प्रेम दे रही है। उनको सुखी कर रही है। मुझे इस बात से कितनी प्रसन्नता हो रही है। मेरे श्याम को सुख

जयजय राधिके , अमिता दीदी

जय जय राधिके जय जय कृष्णप्यारी ! जय जय श्यामा जय जय सर्वहितकारी !! जय जय राधिके जय जय नवल तरंगिणी ! जय जय श्यामा जय जय कृष्णसंगिनी !! जय जय राधिके जय जय परमपुनीता ! जय जय श्यामा जय जय मृदुल विनीता !! जय जय राधिके जय जय ब्रजेश्वरी ! जय जय श्यामा जय जय विश्वेश्वरी !! जय जय राधिके जय जय कीर्ति नन्दिनी ! जय जय श्यामा जय जय श्याम आन्दिनी !! जय जय राधिके जय जय कंचन वर्णी ! जय जय श्यामा जय जय कलिमल हरणी !! जय जय राधिके जय जय सुकीर्ति ! जय जय श्यामा जय जय परम् प्रकृति !! जय जय राधिके जय जय त्रिलोक स्वामिनी ! जय जय श्यामा जय जय कृष्ण आराधिनी !! जय जय राधिके जय जय परमकृपालिनी ! जय जय श्यामा जय जय परम् दयालिनी !! नित नित करूँ वन्दन कर जोरी ब्रज ठकुरानी ! नित नित  मैं  गुण  तेरे गाऊँ  कल्याणी !!

कान्हा और मित्र मण्डली , अमिता दीदी

कान्हा और मित्र मण्डली ~~~~~~~~~~~~~ एक बार कान्हा जू का प्यारा सखा मधुमंगल उनसे रुष्ट हो जाता है। उनसे कहता है कान्हा तुम सब सखाओं से प्रेम करते हो और उनको सब मिष्ठान खिला देते हो। मेरा तो तुम ध्यान ही नहीं रखते। मुझे लड्डू भी नहीं दिए। मैं एक निर्धन ब्राह्मण हूँ न इसलिए तुम मुझसे इतना स्नेह नहीं रखते। अब कान्हा जू तो सखाओं के सखा हैं उनका कोई सखा उनसे रुष्ट हो जाये ये तो उनको कभी स्वीकार ही नहीं। मित्र मण्डली में प्रेम बढ़ाने हेतु लीला चलती रहती है।     मधुमंगल अत्यधिक रुष्ट हो जाते हैं। उनके हृदय में अपने सखा के प्रति अत्यधिक प्रेम उमड़ता है तो उसे छिपाने हेतु वो झूठमूठ में अपने सखा से झगड़ते हैं। कान्हा तुमने मुझे लड्डू भी नहीं दिया देखो सभी मित्र सुमंगल ,श्री दामा सब मुझे चिढ़ा रहे हैं। सभी मित्रों को लड्डू खिलाये हो और मेरी बारी सब खत्म। अभी कान्हा अपने मित्र को आँख बन्द करने को कहते हैँ। मधुमंगल जानता है ऐसे तो कभी हो नहीं सकता कान्हा मुझे भूल जाएँ और मेरे लिए लड्डू नहीं रखें । अवशय ही इन्होंने अपने पीताम्बर में छिपा रखा है। इधर नटखट कान्हा को जाने क्या शरारत सूझती है मधुमंगल के

सचिन जी द्वारा राधा जी का रूप

[10/18, 11:23 AM] sachin Bhai dasi fb: क्रम से समझते हैं।श्रीमती राधारानी भगवान की स्वरुप-भूता ह्लादिनी शक्ति है(मन को प्रसन्नता देनेवाली सात्विकी शक्ति) ये श्री कृष्ण को सुख प्रदान करती हैं।इसलिए इस आनंद शक्ति को ह्लादिनी कहा गया।इससे श्री कृष्ण स्वयं सुख अनुभव करते हैं।वे सुख स्वरुप होकर भी सुख का आस्वादन करते हैं।इसी ह्लादिनी शक्ति के द्वारा वे भक्तो को सुख प्रदान करते हैं। [10/18, 11:24 AM] sachin Bhai dasi fb: ह्लादिनी का सार अंश प्रेम है। इसी का दूसरा नाम  'आनंद-चिन्मय रस' है। अथवा यु समझिए आनंद-अनुभव-स्वरुप चिन्मय रस का आस्वादन इसी प्रेम से होता है। [10/18, 11:25 AM] sachin Bhai dasi fb: इसी प्रेम का परम सार महाभाव है। इस महाभाव की घन मूर्ति हैं श्रीमती राधारानी [10/18, 11:27 AM] sachin Bhai dasi fb: राधिका जी का देह प्रेम-स्वरूप या प्रेम की प्रतिमूर्ति है।वो प्रेम के द्वारा ही गठित है। [10/18, 11:30 AM] sachin Bhai dasi fb: श्रीमती राधारानी महाभाव चिंतामणि सार है। चिंतामणि जैसे सब वांछाओ को पूर्ण करती है,वैसे ही श्रीमती राधारानी श्री कृष्ण की समस्त वांछाओ को पू

श्री बंशीवट महारासलीला स्थली, वृन्दावन....

श्री बंशीवट महारासलीला स्थली, वृन्दावन.... "वृंदावन सो वन नहीं, नन्दगाँव सो गाँव, बंशीवट सो वट नहीं, श्रीकृष्ण नाम सो नाम" पुष्टिमार्ग संप्रदाय के संस्थापक आचार्य श्रीमद् वल्लभाचार्य महाप्रभुजी जब वृन्दावन पधारे थे तब महाप्रभुजी ने बंशीवट में श्रीमद् भागवत् कथा का पारायण किया था। आपश्री की ८४ बैठक में से चतुर्थ बैठक बंशीवट में बिराजित है। कुछ लोग ऐसा कहते है की श्री वल्लभ महाप्रभु को श्रीनाथजी के प्रथम दर्शन बंशीवट में हुए थे। श्रीमद् वल्लभाचार्य महाप्रभुजी के शिष्य सूरदासजी, कुम्भनदासजी, नन्ददासजी साधना के हेतु से बंशीवट पधारे थे, मीराबाई जी भी इस स्थान पर पधारी थी। बंशीवट गौड़ीय वैष्णवों के लिए भी महत्वपूर्ण स्थान है, जब श्री चैतन्य महाप्रभु वृन्दावन पधारे थे, तब सबसे पहले वह बंशीवट गए थे। श्री चैतन्य महाप्रभु ने बंशीवट में साधना की थी तथा वृन्दावन से वापिस लौटने के वक्त उन्होंने यह स्थान पर रहने का आदेश अपने शिष्य मधुपंडित गोस्वामी तथा परमानंद गोस्वामी को दिया था। एक बार मधुपंडित गोस्वामी इस स्थान पर खुदाई कर रहे थे, तब किसी वृक्ष के मूल में उन्हें  बंशी के दर्शन हु

युगल की विचित्र स्थिति , अमिता दीदी

युगल की विचित्र स्थिति ~~~~~~~~~~~~ कान्हा एक वृक्ष के नीचे बैठे हैं। उनके हाथ में श्री जू का एक चित्र है। उनके मुख पर कोई भाव नहीं है केवल टिकटिकी लगाए चित्र को निहार रहे हैँ। कुछ समय पश्चात चित्र को हृदय से लगा लेते हैँ। एक सखी उनको बहुत समय से इस स्थिति में देख रही है परन्तु वह कान्हा के हृदय में उठ रहे भाव अनुभव ही नहीं कर पा रही। क्या कान्हा अति प्रसन्न हैं या विरह में व्याकुल हैँ। मुख पर कोई भाव नहीं है केवल उस चित्र को निहारते हैँ और पुनः पुनः हृदय से लगा लेते हैँ।    कुछ समय पश्चात कान्हा उस सखी का हाथ पकड़ते हैँ और कहते हैँ  प्रियतमे ! राधे ! क्या मैं तुम्हारे प्रेम के योग्य हूँ। तुम मुझसे इतना प्रेम करती हो । मैं तो तुम्हारे चरणों का दास हूँ तुम्हारा ऋणी हूँ सदैव। कभी सोचता हूँ तुम मुझसे कितना स्नेह करती हो और मैं स्वयम् को तुम्हारे प्रेम के लिए अयोग्य पाता हूँ। उस चित्र को निहारते निहारते कान्हा जू की मनोदशा ऐसी हो चुकी है कि उस सखी में भी उनको राधा ही प्रतीत हो रही है। सखी कान्हा की बात सुनकर प्रसन्न होने लगती है ।    तभी उस वृक्ष से कुछ दूरी पर एक और वृक्ष की ओट से श्री