अचरत बृज कौ जन-जन देखि गिरि रूप चकित हुलसत मन। करत नमन श्यामसुंदर बृजवासिन संग। प्रभु आज हौं सब देख्यौ साक्षात रूप गोबरधन। अज्ञ अनजान हम,ज्ञान दियौ नंदनंदन, हुवै दरसन। हमारौ गो-धन, भू-धन बृज बाढ्यौ दिन दिन। एतैहिं एहौं, दिव्य किरीट भूषण धारी गिरि भयौ अंतर्धन। तद ब्राह्मण जीम्यै, जीम्यौ बृज कौ प्रति जन। करत परिक्रमा सजि धजि 'मँजु'गिरि गोबरधन की मुदित जन। (डाॅ.मँजु गुप्ता) +++++++++++++++++++ इक अंगुलि परि धरि गिरि गोबरधन ठाड़े कृष्ण कन्हाई अति कोमल तन, गोप जन लै लै लकुटि लगाई। राख्यौ सत दिवस, इकहुँ डग इत उत जनि पाई। देखि गिरि-तल जल, शेष-सुदर्शन निवारण हेत बुलाई। चक्र सुदर्शन पीवत जल-धार अगस्त मुनि नाई। चक्करहिं लै गोल भयौ शेष, गिरि तल-तट प्राचीर बनाई। रोक्यौ जल प्रवाह ज्यौं तट भूमि रहत समुद्र सहाई। इकटक ठाड़े श्यामसुंदर लखत गोप विनहिं मुख 'मँजु' चकोर नाई। (डाॅ.मँजु गुप्ता) ++++++++++++++++++++ अपलक निरखति जसुमति मैया ऐतिक बल बूझि कहाँ तै लायौ कन्हैया। बृजजन बूझत कौन तेरौ सुत, कहाँ तै पाई मैया? हौं ठगि कत कहिहौं, सात बरस की उमरिया। उठाल्यौ गिरि सा