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रसिक वाणी पद

कही विधि कहियौ बात मौन  ही हकै रहियौ
निंदक निदा करै मारि मन सोहि  रहियौ
निंदक निंदा करै,उलटि नहीं दीजौ उत्तर !
पति को रुख पहिचान उबरियो  पायन पर ।

नैमित्तिक लीला में जिस कृष्ण का चंचल मन अनेको गोपीयो के पीछे भागता फिरता था , निज वृन्दावन में प्रियाजू के मुख पर एक घुंघराली लट के आने से  जो छवि बनी है उस लट पाश से कृष्ण का चंचल मन बंध जाता है और वो कृष्ण प्रियाजू की इस छवि को एकटक निहारते रहते है

कहत सुनत गावत रसिक, नित नित लीला रस पियत ।।

मैं किंकरी राधारानी की कैंकर्य करना मेरा काम
वृन्दावन से बहार क्यू जाऊ जहाँ से न जाते श्यामाश्याम

मेरी लाडली जू की मैं हु दासी
मुझे न इस संसार से काम
सखियन की जूठन मैं पाऊ और गाती रहू नित श्यामाश्याम

लाडली दास जी लिखते है

गुरुन बतायौ इष्ट तजि।
जे सेवत है और।
उलूक कामी जानिये।
तिन्हे कहू नहि ठौर।

निज पति को जे छाडिके।
करै और सो प्यार ।
व्यभिचारी खोये दोऊ।
परमारथ व्यौहार ।

जो लोग गुरूदेव के बताये हुए इष्ट को छोडकर अन्य देवो का सेवन करते है वे उलूक पक्षी के समान है जिन्हे दिन मे भी नही दीखता और कामी है उन्हे कही भी जगह नही है जो अपने पति रक्षक को छोडकर अन्यो से प्रेम करते है वे व्यभिचारीहै और अपने परमार्थ एवं व्यवहार दोनो को ही खो देते है
तात्पर्य यह है कि भक्ति साधना का प्रथम सोपान गुरु शरणागति है श्रध्दालु साधक सबसे पहले अपने श्रध्दा भाजन गुरुदेव की शरण मे जाता है वे उसे दीक्षा और शिक्षा देते है एवं इष्ट देव का स्वरुप  बताते है तथा उसका सर्वस्व उन के श्री चरणो मे अर्पित कराकर भजन भाव का उपदेश देते है साधक यदिआज्ञा अनुसार अनन्यभाव से भजन मे प्रवृत्त हो जाता है तो कृपा पात्र होकर सुखी होता है और यदि कामनाओ के वशीभूत होकर वह अपने इष्ट को छोडकर अन्याश्रय ग्रहण करता है तो वह कही का भी नही रहता।उलूक पक्षी के समान वह दिवसान्ध ही है उसे कहा स्थान मिलेगा सुख शांती का ।क्योकि वह अपने निजपति रक्षक को तो छोड चुका है अन्यो से प्रीति करने लगा। फलत: परमार्थ और व्यवहार दोनो से ही भ्रष्ट हो जायगा ।परम रसिक धुवदास जी की वाणी है
आगे

अपना स्व भुलाकर के सहचरी सेवे श्यामाश्याम
धन्य धन्य है भाग जिनके जिन्हें मिला हित वृन्दावन धाम

निष्काम प्रेम की मूरत है ललितादिक श्यामा अरु श्याम
जिनका तत्सुख भाव है सोई बसे वृन्दावन धाम

स्व है न स्वसुख है तिय के तन को भाव
वृन्दावन रस रसिकन को ऐसो तत्सुख स्वाभाव

भोरी भारी राधा जू और नटखट नवल किशोर
कोई श्यामाश्याम पुकारे कोई सांवल गौर

राधा जू मम स्वामिनी कृपा करो मेरी नाथ
निश दिन देखू मैं आपको मनमोहन के साथ

लावण्य सार रस सार सुखैक सारे
कारुण्य सार मधुर छवि रूप सारे
वैदग्ध्य सार रति केलि विलास सारे
राधाभिधे मम मनो अखिल सार सारे

राधा काराव चित्त पल्लव वल्लरिके
राधा पदांक विलसन मधुर स्थलिके
राधा यशो मुखर मत्त खगावलिके
राधा विहार विपिने रमतां मनो में

कबहु तौ थोरो भजन, कबहु होत विशाल ।
भजनी ऐसो चाहिए, छूटे न मन की चाल ।।

राग धुन मोह्यो नही, बिंध्यो न उर छवि बान ।
ताकौ ऐसो जानिये,  पाहन चित्र समान ।।

सब अधमनि को भूप हौं, नाहिन कछु समझंत ।
अधम उद्धारन व्यास सुत, यह सुनि के हर्षंत ।।

प्रीति की रीति कौ पैंड़ौहि न्यारौ।
कै जानत वृषभानुदुलारी,
       कै जानत यह कान्हर कारौ।
सहजै प्रीत न होय सखी री,
       यह अपने मन सोच विचारौ।
प्रेम पंथ कौ चलन बांकुरौ,
     रसिक बिना को समझन वारौ।
सूरदास यह प्रीत कठिन है,
      सीस दिये भी न होत निभारौ।

।।जय जय श्री राधे।।

हे राधे ,हे वृषभानु ललि...
तुम बिन जीवन क्या जीवन है !

जिस जीवन की तुम जीवन हो,
वो जीवन ही वृन्दावन है !!

हे राधे, हे वृषभानु ललि..
तुम बिन जीवन क्या जीवन है !

हे परमेश्वरी, हे सर्वेश्वरी ,तू ब्रजेश्वरी,
आनंदघन है..

हे कृपानिधे! हे करुणानिधि!
जग जीवन की जीवन धन है!

हे राधे ,हे वृषभानु ललि...
तुम बिन जीवन क्या जीवन है !!

दुर्गमगति जो योगेन्द्रों को,
वही दुर्लभ ब्रह्म चरण दाबे..

रसकामधेनु तेरी चरण धूल,
हर रोम लोक प्रगटावन है !

हे राधे ,हे वृषभानु ललि...
तुम बिन जीवन क्या जीवन है !!

अनगिनत सूर्य की ज्योति पुञ्ज,
पद नखी प्रवाह से लगती है..

धूमिल होते शशि कोटि कोटि दिव्यातिदिव्य दिव्यानन है !

हे राधे ,हे वृषभानु ललि...
तुम बिन जीवन क्या जीवन है !!

श्रुति वेद शास्त्र सब तंत्र मन्त्र,
गूंजे नुपुर झनकारो में..

वर मांगे उमा, रमा, अम्बे,
तू अखिल लोक चूड़ामणि है!

हे राधे ,हे वृषभानु ललि...
तुम बिन जीवन क्या जीवन है !!

वृजप्रेम सिंधु की लहरों में,
तेरी लीला रस अरविन्द खिले...

मकरंद भक्तिरस जहां पिए,
सोई भ्रमर कुञ्ज वृन्दावन है !

हे राधे ,हे वृषभानु ललि...
तुम बिन जीवन क्या जीवन है !!

जहां नाम तेरे की रसधारा,
दृग अश्रु भरे स्वर से निकले..

उस धारा में ध्वनि मुरली की,
और मुरलीधर का दर्शन है!

हे राधे ,हे वृषभानु ललि...
तुम बिन जीवन क्या जीवन है !!

राधा माधव ,माधव राधा,
तुम दोनों में कोई भेद नही..

तुमको जो भिन्न कहे जग में,
कोई ग्रन्थ,शास्त्र,श्रुति वेद नही..

आराध्य तू ही आराध्या तू,
आराधक और आराधन है !

हे राधे ,हे वृषभानु ललि...
तुम बिन जीवन क्या जीवन है !!

जहां नाम, रूप ,लीला छवि रस,
चिंतन गुणगान में मन झूमें..

उस रस में तू रासेश्वरी है,
रसिकेश्वर और निधिवन है!

हे राधे ,हे वृषभानु ललि...
तुम बिन जीवन क्या जीवन है !!

जब आर्त ह्रदय यह कह निकले,
वृषभानु ललि मैं तेरी हूँ...

उस स्वर की पदरज सीस चढ़े,
तब लालन के संग गोचन है!

हे राधे ,हे वृषभानु ललि...
तुम बिन जीवन क्या जीवन है !

जिस जीवन की तुम जीवन हो,
वो जीवन ही संजीवन है !!
हे राधे ,हे वृषभानु ललि...
तुम बिन जीवन क्या जीवन है !

।श्री राधारमणाय् समर्पणम्।

💐राधे राधे💐
प्रथम यथामति प्रणऊँ श्रीवृंदावन अतिरम्य।श्री राधिका कृपा बिना सबके
मनन अगम्य।।
रस रूपा श्री राधिका का यह
अद्भत रस धाम उन्हीं  की कृपा से उपासक के दृष्टि पथ में आता है। श्री हित जी लीला गान से पूर्व वृन्दावन को प्रणाम किया है और श्री राधा की कृपा के बिना सबके मनों के लिए अगम्मय बताया है।
प्रबोधानन्द जी कहते हैं कि जब तक श्री राधा के पद-नख-मणि की चन्दिरका का आविर्भाव नहीं होता, तब तक मन चकोरी को मोद प्राप्त नही होता और जब तक वृंदावन भूमि में गाढ़ निष्ठा नहीं होती तब तक श्री राधा चरणों की करूणा का पूर्ण उदय नहीं होता।
श्री हरिवंश

जै जै श्री हित हरिवंश।।

जब सुरँग सारी सुही, पहिरति भरी सुहाग। अंतर भरि मनु उमंगि कै, प्रगट्यो पिय-अनुराग।।31।।

राजति सुंदर उदर पर, अदभुत रेखा तीन। देखत सींवा रूप की, ललन भये आधीन।।32।।

व्याख्या  :: श्री राधा जी जब सुहाग का प्रतीक गहरे लाल रँग की साड़ी को धारण करती है तब ऐसा लगता है जैसे अंतर मन का अनुराग भर गया है और उमड़ कर इस रूप में प्रगट हो बाहर आ गया हो।।31।।

व्याख्या  :: सुन्दर उदर पर शोभायमान त्रिवली रेखा अति ही अदभुत है और यह रूप की अनुपम शोभा को देख कर प्रियतम (श्री कृष्ण जी ) उनके प्रेमाधीन हो गये है।।32।।

जै जै श्री हित हरिवंश।।

जै जै श्री हित हरिवंश।।

नीलांबर छबि फबि रही, मन में रहत विचार। मानो सार सिंगार कौ, ओढ़े वर सुकुमार।।29।।

सारी पीरी जरकसी, झलकत छबि सौ जोति। सुबरन की वरषा मनों, कालिंदी पर होति।।30।।

व्याख्या  :: श्री राधा जी के श्री अंग पर नीलाम्बर की छबि इस प्रकार फब रही है कि मन में विचार आ रहा है जैसे मानो सारे श्रंगाऱ् का सार रस सुकमार (प्रियतम) को ही ओढ लिया है।।29।।

व्याख्या  :: श्री राधा जी की पीतवर्ण की साड़ी जो की जरीदार है ऐसे झलमला के ज्योति की छबि बन रही है जैसे  श्याम वारि-वाहिनी यमुना पर सुवर्ण की व्रष्टी हो रही हो।।30।।

जै जै श्री हित हरिवंश।।

नित्य धाम वृंदावन स्याम
नित्य रूप राधा ब्रज-वाम।
नित्य रास जल नित्य विहार
नित्य मान खंडिताऽभिसार।

ब्रह्म रूप वेई करतार
करने हरत त्रिभुवन येई सार।
नित्य कुँज-सुख नित्य हिंडोले
नित्यतिं त्रिविध-समीर झकोर।

सदा वसंत रहता जहाँ वास
सदा हर्ष, जहँ नहीं उदास।
कोकित कीर सदा तँह रोर
सदा रूप मन्मय जितचोर।(सूर)

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