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प्यारे से निज सम्बन्ध

" प्यारे श्रीकृष्ण " से हमारा निज संबंध
मेरे निज स्वरूप ! जब भगवान हमारे हैं और हमारे भीतर ही हैं , तो फिर हमें चिन्ता कैसी ? शोक कैसा ? वे प्यारे सर्वसमर्थ हैं , उनकी महिमा का वारपार नहीं , तो फिर भय कैसा..?
उन प्यारे श्रीकृष्ण की सत्ता से कोई बाहर नहीं , आँखों से कोई ओझल नहीं , तो फिर हमें पश्चाताप कैसा..?
इन सब बातों को अपने निजी जीवन में उतार लेने वाले मनुष्य के आनंद की कोई सीमा नहीं !!
यदि हम उन प्यारे श्रीभगवन् को ही पसन्द कर लें , तो हममें उनका प्यार पैदा होगा ही (अर्थात् उनके प्रति प्रेम ) ,फिर हमें उनकी याद भी आने लगेगी और ये मन भी लग जायेगा ! इसीलिये, यदि हम उन्हीं के नाते सब काम करें , तो फिर उनकी विस्मृति कभी भला हो सकती है..? कदापि नहीं
प्यारे श्रीकृष्ण ही हमें प्यारे लगें , उन्हीं की याद बनी रहे , ये चंचल मन लग जाये , इसीका नाम तो भजन है ! यही तो भक्ति है !
इस हृदय में परहित का ही भाव हो , सबके साथ सद्भावना हो- यही तो सेवा है न  !!
कुछ भी न चाहना यही हमारा त्याग है ! प्यारेप्रभु के समर्पण हो जाना ही तो सच्चा प्रेम है !
इसी का नाम वास्तविकता में भजन है !!
यदि अपने स्थान पर उचित बने रहें तो सभी धर्मात्मा ही हैं !!
मेरे प्राणाधार , प्राणाराध्य ,मेरे प्राणधन प्यारे माधव..आपकी स्मृति सदैव ही मेरे अंतर्हृदय में बनी रहे मोहन..
अपनो जान सम्भलो प्रियतम , मोहे नाथ ना दीजौ बिसारी  
ओ रसिया ! प्यारे मैं तो शरण तिहारी

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