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क्या मैंने गंगा को छुआ है

क्या मैंने गंगा को छुआ है ...
या गंगा ने कभी मुझे छुआ !!

अगर मैं छु जाता तो क्यों न ,
उस में लुढ़कता ही रह जाता
सम्भवतः गंगा से बाहर निकलता कैसे ?

क्या उसने भी छुआ ?
नहीँ अगर छु देती तो ,
वह निकलता कैसे ?
जिसने डुबकी लगाई !
डूबता कोई शूल तम्
निकलता अरविन्द सा !
ऐसा भी ना हुआ !!

और फिर वह तो माँ है
अपनाने को व्याकुल !
अधिक व्याकुल क्योंकि ,
सना हूँ मल - दुर्गन्ध में !
कीचड़ में ही लौटता रहा सदा

फिर मै भी पुत्र हूँ !
कुपुत्र ही सही !
पर कु के बाद भी पुत्र तो ...
कैसे छु दूँ ,
अपनी इस शाश्वत माँ को
इस कीचड़ मलिनता की दुर्गन्ध
इसमें तो "स्वभाव" भी मेरा संग नहीँ

मिलना तो मुझे भी है ,
पर हूँ कीचड़ में जान कर
नहीँ बैठ सकता , नहीँ उतर सकता !
हाँ पता न होता , अलग बात !
और पुण्यप्रदायिनी तुम !
पापहरिणी भी तो हो , क्यों हो ?
क्या करोगी मेरी मलिन धाराओं संग !
मुझे पवित्र करोगी , इतनी सरलता से !
फिर मेरा मल-कीच तुम हर लोगी ,
ममता तो सिद्ध होगी , होती है सदा !
पुत्रता खण्डित होगी , होती भी सदा !

हे प्रीत प्रदायिनी , रसधारे !
कीच और मल सहित नहीँ उतरना !
होना है कि तुम ही नहीँ ,
मैं भी छु सकूँ तुम्हें !
यूँ मल हटना नहीँ !
तो मुझे भी माँ तट पर ही
सिसकना भीतर ! माँ - ओ माँ !!

हाँ , प्रगट हो कह दो !
मिलोगी - छुओगी !
पर पाप ना हरोगी !
यह कहीँ बाँट नहीँ सकता !
पूण्य ना दोगी ! पवित्र न करोगी !

सच में माँ मानूं ही ,
क्यों तुम्हें मलिनता दूँ ?
उतरुं वैसा -
जैसा तुम निकालती हो बाहर !
रो रहा हूँ कब कीच बिन अपनी
माँ से लिपट सकूँगा !!
माँ तेरा तृषित !
जीवन तट पर प्राण देने को ,
पर तब भी ना छुना माँ !
ना छुना , तुम छुये बिन रहती भी नहीँ !
--- सत्यजीत तृषित

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