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लौट जाओ -- तृषित

यूँ तो उनकी गली से गुज़र कर न गुजरे थे हम
फिर किसी दिन हमने उन्हें देखने का गुनाह किया

तब से खड़े वहीँ
तबियत से उन्होंने हर बात भी की
जिस क़दर वें चाह रहे ऐसा तो कोई मिला ही नहीँ

फिर वें घुल से गए
हमारे कदमों के निशाँ उड़ भी गए

अब न कोई सुराख़ रहा
ज़िंदगी में क्या था और क्या न रहा

उनकी आँखें मेरी ज़िन्दग़ी
पता भी न था मुहब्बत है मीठी साजिश भी

फिर वो कहे रुको अभी आता हूँ
जाना नहीँ कोई चीज़ दिखता हूँ

फिर उनकी ज़िंदगी की सबसे हसीं
तबस्सुम मिली
उनकी हरकतें साहिब से थी घुली

फिर वो आए और अपनी सजनी को ले गए
बिन कहे कुछ अकेला छोड़ गए

फिर एक दौर गुज़रा मौत से गहरा
हमने माँगी तो थी कभी मौत पर मिली वो भी असली

आवाज़ आई फिर ऐसी
जिसने वो किया जो उनके जाने से न हुआ

गए थे जब तो एक प्यास थी
था इन्तज़ार और बात भी
थी निगाह ज़मी की वो अब आते है

फिर पुकारें वो और कहे ज्यों
सुनो मुझे कुछ कहना है ,
इतना सुना कि हम नटराज से हुये
पगला ही गए फिर वो कहे ,
अरे सुनो ! किसी तरह ठहर ही गए

जी कहिये , क्या कोई शिक़ायत है
नहीँ ऐसी बात नहीँ , तुम जान मेरी
हाय यें जो सुना हमने हम मरे क्यों , वहीँ नहीँ ।
काश मर जाते तो भला खुद संग कर जाते
एक मुहब्बत की मौत में अमर प्रेम में बंध जाते

जी कहिये न ,
अरसे में सुना है आपको ।
सुनो ... ... ... लौट जाओ ।
यह दो लफ्ज़ में खत्म कर दी सदियोँ की ज़िंदगी ।
दो लफ़्ज़ो में पंख सब टूट गए ।

हम ख़ुद का वो हाल बयाँ क्या करें ।
राख खुद की ख़ूबसूरती याद क्या करें ।

बस , फिर न आवाज़ आई ।
लौट जाओ , कहाँ - किधर , बस चल दिए ।
लौटने के लिये भी कदमों की ज़रूरत है ।
इस जगह खड़े अरसे से चलना भूल गए थे ।
गूँजता रहे यें शब्द नहीँ मौत बन कर ।
ऐ मेरी ज़िन्दग़ी यें कितना हसीं हादसा हुआ ।
तू रुख़सत हुई उन संग , बिन ज़िन्दग़ी लौटना फिर क्या हुआ ?

अभी तो सुना भर है ,
कहाँ - किधर लौटे यें न पता ...

तेरी और आने पर दर्द हसीं लगता था ।
हर ज़ख़्म मुहब्बत के निशाँ लगता था ।

अब वहीँ ख़्वाब जो कभी छुने को दिल करता था ।
आज हमने ख़्वाबों को गुल नहीँ झाड ही पाया ।
यहाँ बिखरे पन्नों ने कितना हसीं क़त्ल किया
जो किया , बहुत ख़ूब किया , हमने न जाने किस लिये ज़हर पिया ---
सत्यजीत तृषित ।।।

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