करूण हृदय की पुकार हरि
आओ हरि
करती हूँ करूण पुकार
हृदय पर रखो हाथ
सुनो अंतरंग सखी की गुहार हरि
छूकर तूने जो छेड़े हैं
दिल के तार
वंशी की धुन नहीं
अब कलिकी बन
ले आओ हाथ में कटार
ओ राधा के आधार
कृष्णेय(द्रोपदी)के कृष्ण
गोपियों के पालनहार
हे गो पाल
आज दाव पर लगी हर नारी
रूप धर आओ अब तुम
कई लाख हजार
अभी तो बरस बीते केवल कुछ ही
तुम आओगे अपने ही निर्धारित समय पे
तब देखो धरा पर रस न रहेगा
तुम्हारे अधरामृत को छकने का कोई हकदार न रहेगा
देखो अब होता नहीं सहन
दर्द के आंसु जब धरा रोएगी
तो प्रेम (तुम्हें)भूल कर हर नारी दुखड़ा दुनिया का ही रोएगी
विश्वास न करेगा कोई तुम पर
जब जग छल बन जाएगा
तब तुम आ कर क्या करोगे
छलिया बन किस गोपी को हरोगे
वक्त रहते आओ हरी
बचालो खुद अपनी लाज(नारी)हरी
हरि तुम बिन सूना कुंजन
निकुंज को कोई जाने न
कांप उठता है तन और मन
जब तेरा घर भी श्मशान कहलाएगा
क्षमादान करना हरि
कलियुग की उम्र इतनी
लंबी क्यों
कलंकित हो जाएगी
हर गोपी हर राधा हरि
घर घर में दूध उफन रहा
यशोदा माँ तेरी रो रही
दही बिलोती कन्या अब
तेरी गोपी न रही
अब न आया तो फिर
मन माखन किसका चुराएगा तू
निष्ठुर न थे तब तुम
जब गोपियों को विरह संभारा था
निष्ठुराई अब देखी तेरी
जो विरह भी जगा न सकी
किसी गोपी के उर अंतस
मधुर मधुर अधरामृत
जो न था इस धरा का
सो अमृतपान कब किसको
फिर कराएगा तू
कांप उठा है मेरा तन
शिथिल हुआ मेरा मन
जब आएगा तू
तब रंग भरी होरी न होगी
यूँ ही अगर खून
के आंसु रूलाएगा हरि
बोलो अब कैसे कोई
मीरा तेरी दीवानी होगी
घर से पग बाहर धरेगी
द्रोपदी की लाज बचाने
आए थे तुम
अब कई द्रोपदियों की इज्ज़त
लगी दाव पर ओ हरी
हुए बहुत अब प्रेम अलाप
और विरह के प्रलाप
वंशी अपनी देदो मुझे
और पकड़ो अब
हाथ में तलवार
बह रहा जहाँ निर्दोष खून
बन आओ वहाँ
इक बाँध हरि
सजते संवरते भाते न तुम
मंदिरों में खड़े नज़र
आते न तुम
ठंड में जहाँ कोई तड़प रहा
तपश अंगीठी की क्या सेक पाते हरि
गर्म हवाओं की लो में
जलते गरीब फकीर
ऐसे में क्या
चंदन केसर हैं तुम्हें
सुहाते हरि
जब रात के अंधेरों में
होते घनेरे पाप
क्या तब तुम
राधा संग निकुंज में
रास रचा पाते हो हरि
मैं भी इक माँ हूँ
दी तूने मुझे भी
इक बेटी परी सी
करना परवरिश
एक पिता की हैसियत से
हर राधा हर यशोदा
और गोपी भी
रहती अब तुम बिन
डरी सी
जोत से जोत जले न अब
जला दो अब
हर हृदय में इक
न्याय की मशाल हरि
न्याय की मशाल हरि
मांगा तुम्हें तुमसे
सदा ही
तुम आए हरि
आभार करती हूँ
पर हूँ इतनी
स्वार्थी नहीं
कि पाकर तुम्हें
बांध लूं अपने
पहलू से हरि
तुम करो उद्धार
मानवता का
यही अरदास हरि
तुम चलो अपने
धर्म पथ कर्तव्य पर
और मैं करूँ तेरा
सदा इंतजार हरि
करूँ सदा तेरा इंतजार हरि
Comments
Post a Comment