अधूरी हूँ मैं अधूरी हूँ
प्रिय तुम बिन अधूरी हूँ
तुम से लिपट सिमट कर
फिर खुद ही बिखरती हूँ
नित नित कह तुमसे यूँ
नित नव मिलन तुम से करती हूँ
कान्हा कैसी ये तेरी प्यास है
नित नई सी संजोती हूँ
तनहाई में बसर कर कुछ पल
फिर आहों में पिघलती हूँ
तड़प असहनीय जगा करके
तेरे चरणों में आ गिरती हूँ
नीर नयन यूँ भिगो कर
आस मिलन की करती हूँ
तुम केशव से दिल लगाया क्यों
कह कह मैं सिसकती हूँ
पा ना सका जिसे कोई
उसे खुद ही में कैसे पा जाती हूँ
मधुसूदन तुम प्राणों से भी प्यारे हो
कह हृदय में ही बाहों को समेट लेती हूँ
तुम्हारे आगोश को महसूस कर
नित नित मैं यूँ निखरती हूँ
नित नव चाव उल्लास से
इक नए एहसास से
तुम में से ही उभरती हूँ
तुम संग राधा को देख
मेरे हृदय कंवल खिल जाते हैं
शक्ति के हाथों में दे हाथ प्रिय
मैं अधूरी से भरपूर हो जाती हूँ
जिस सद्चितआनंद ईश्वर को
नेति नेति कह वेद बताते हैं
उन प्रियाप्रीतम को
मैं अपना शीश नवाती हूँ
जिनके स्वागत को उषा भी
किरणों की माला लाती है
जिनके स्वागत को प्रातःसमय
हर कली फूल बन जाती है
जिनके पद कमल चूमने को
हर नदी तरंग बन आती है
जिनसे मिलने को संध्या भी
सोलह सिंगार लगाती है
जिनके दर्शन को रजनी भी
तारों के दीप जलाती है
जिनकी सुंदर मुस्कान छटा
हर कण कण में मुस्काती है
उन प्रियाप्रीतम मनमोहन को
मैं अपना शीश नवाती हूँ
उनके मिलने से ही
मेरी प्यास और बढ़ जाती है
साथ रहूँ सदा उनके
ये लगन सी लग जाती है
हे नंदनंदन तुम राधा संग
बसे हो मन मंदिर में ही
फिर क्यों बार बार ही
आकुल व्याकुल हो जाती हूँ
फिर डूब डूब कर विरह में ही
पुनर्मिलन का
इक नया दीप जलाती हूँ
पा पाकर तुम्हें ही पा जाऊँ
ऐसी विरह वेदना में ही खो जाती हूँ
प्रिय!!अब एक ही तमन्ना है दिल की
तुम यूंही सदा संग संगिनी के
रह रह कर प्रेम बढ़ाना प्रिय
मुझ तुच्छ अभागिन को
अपने काबिल बनाना तुम
सदा विरह रस प्रेम भक्ति का
आशीष हस्त अपना
मेरे मस्तक पर रखना प्रिय!!
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