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मोहब्बत क्या हुई तुमसे हमारी जान जाती है , सलोनी जी

मोहब्बत क्या हुई तुमसे हमारी जान जाती है
तुम्हे क्या मालूम आशिकी कितना सताती है
मैं खुद को रोक लेती हूँ रूह पर रूकती नहीं 
जिस्म से ये जुदा होकर तुम से मिलने आती है
अब महफ़िल में भी मुझको अकेलापन सताता है
भरी महफ़िल में तन्हा हूँ तन्हाई  मुस्कुराती है
डर लगता है अब ज़माने से सब और भीड़ नज़र आती है
बेगानी हूँ खुद की देह से और ये सब अपने भी पराए लगते हैं
तुम बिन न लगता कहीं ये मन अब सबसे रूख्सत-ए-महफिल कहती हूँ
तन्हा हूँ पर तन्हाईयों से भी लड़ती रहती हूँ
ना ये हों तो तुमसे हाल-ए-दिल ब्यान न कर पाती हूँ
तुम से और अकेलेपन से रिश्ते जब जोड़े हैं
तो ज़माने भर से अलविदा कह पाती हूँ
आगोश में तेरे आके अब हर गम-एहसास से पर्दा रखती हूँ
महक हो गई हूँ और हर शह को तेरे दम से महकाने की अदा रखती हूँ
मैं मैं नहीं रहती पहचान खो बैठी हूँ
तेरे चरणों से लिपट कर खुद को वहीं भूल जाती हूँ
मुझमें समाए हो तुम कुछ ऐसे कि अब कहीं न मैं समाती हूँ
हो जाती हूँ मैं तुम और तुम में अपना पता खो जाती हूँ

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