राधे राधे
"प्रान भये कान्हमय
कान्हा भये प्रानमय।
हिय में न जानिए परै
प्रान है कि कान्हा है।"
भगवान का ऐसा भक्त त्रिलोकी को पवित्र कर देता है- "मद्भक्तियुक्तो भुवनं पुनीति"
भगवान रसस्वरूप हैं- "रसो वै सः" इस परम दिव्य आलौकिक रस को प्राप्त कर भक्त परमानन्द स्वरूप बन जाता है- "रसं ह्योवायं लब्धवानन्दी भवति"- भक्त और भगवान दो होकर भी एक "तस्मिंस्तज्जने भेदाभावात्" हो जाते हैं।
ऐसी दुर्लभ भक्ति का प्रदुर्भाव किसी विलक्षण व बिरले व्यक्ति में ही फूटता है, जिसके ऊपर प्रभु की अतुलनीय कृपा होती है-नहीं तो हृदय में भुक्ति मुक्ति की अदभ्य अभिलाषा होते हुये ही प्रेमाभक्ति का अंकुर प्रस्फुटित भी नहीं हो पाता।
साधक को जब तक अपने बल पर भरोसा रहता है, भगवत कृपा क्रियाशील नहीं होती। द्रौपदी और गजेन्द्र ने जब तक अपना जोर लगाया, विपत्ति नहीं टली। प्रभु की कृपा व उनका आगमन नहीं हुआ। जब अपना प्रयत्न छोड़, सब ओर से निराश होकर, कातर भाव से आर्तनाद किया-तत्काल प्रभु दौड़े चले आये, अर्थात पूर्ण रूपेण समर्पण-
बिन रोये क्यों पाईये
प्रेम पिपासा मीत।"
भगवान के लिये रूदन उसी भक्त के अंतस: से फूटता है जिसने भगवान के साथ अपने वास्तविक सम्बन्ध को पहचान लिया है। सम्पूर्ण साधनों का फल प्रेमाभक्ति है, प्रेमाभक्ति का फल भी केवल प्रेमाभक्ति ही है, क्योंकि इससे बड़ी कोई वस्तु है ही नहीं। यह स्वयं फलरूपा है- "स्वयं फलरूपतेति ब्रह्मकुमारा:।"
सच्चिदानन्द ब्रह्म में एकभाव से स्थित हुआ प्रसन्नचित्त भक्त न किसी वस्तु के लिये शोक करता है और न किसी की आकांक्षा। यह पराभक्ति तत्व ज्ञान की पराकाष्ठा है- "निष्ठा ज्ञानस्य या परा"- इसी पराभक्ति के द्वारा साधक भगवान को तत्व से भलि भाँति जान भी लेता है और उनमें प्रविष्ठ भी हो जाता है-
"भकत्या मामाभिजानाति
यावान्यश्चामि तत्तवत:।
ततो मां तत्तवतो ज्ञात्वा
विशते तदनन्तरम्।"
ऐसे भगवद्भक्त प्रेमी महात्मा प्रवृत्ति परायण होते हुये भी निवृत्ति पारायण ही होते हैं। स्वयं भगवान उनके हृदय में बैठ कर ही कर्तव्य कर्म करते व करवातें हैं। समुद्र की भाँति गम्भीर भगवत्प्रेम में आकंठ ऐसे भक्त को प्राप्त कर कुल पवित्र हो जाता है जननी कृतार्थ एवं पृथ्वी पुण्यवती हो जाती है।
(डाॅ.मँजु गुप्ता)
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