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आनन्दमय ही भजन कीजिये

यदि भजन में अभी ही लगे हो तो संभव है कि भजन में तत्क्षण ही रस न मिले और फ़िर इसे छोड़कर यत्र-तत्र भटकने लगो किन्तु जैसे-जैसे नाम-रस में/भजन में विश्वास दृढ़ होता जायेगा, वैसे-वैसे ही आनन्द आता जायेगा और रस की उत्पत्ति होने लगेगी किन्तु रस के वास्तविक स्वरुप का बोध तो उनकी कृपा से ही संभव है। यही आसन्न सिद्धावस्था है। इस अवस्था में भक्त, भजन को छोड़ ही नहीं सकता वरन भजन अब भक्त को पकड़ लेता है। रस आनन्द की अपेक्षा अति सूक्ष्म है। आनन्द का अनुभव तो बहुतों को हो जाता है किन्तु रसोत्पत्ति तो श्रीकिशोरीजी की कृपा से बिरलों को ही उपलब्ध होती है। रस-अदृष्ट तथा अनुभवगम्य होता है।
जय जय श्री राधे !

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