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तेरा पता मालुम नहीँ , सलोनी

"हे गोविंद मिलती मैं तुझको
पर तेरा पता मालुम नहीं
कुछ कहती अपनी कुछ सुनती
पर तेरा पता मालुम नहीं
जग को छोड़ कर
आ जाती तेरी चौखट पर
पर तेरा पता मालुम नहीं"

राधा नहीं मीरा भी नहीं
न मैं प्रेमी भक्त कोई
पर तुम फिर भी मेरी महोब्बत हो
न देखा कभी न सुना तुम्हें
तुम फिर भी मेरे प्राणधन हो
न तप ही कोई न सेवा की
तुम तब भी हो मेरे सब कुछ ही
न जानुं तुम्हें न पहचानुं तुम्हें
पर फिर भी तुम बिन जी सकती नहीं
कहो न श्याम क्या कहते हैं इसे
अगर मुझे तुमसे इश्क ही नहीं

न चाह कोई न राह कोई
फिर भी चल पड़ी हूँ मैं
न पता कोई न मंजिल ही
फिर क्यों तुम्हें ही ढूँढ रही मैं
न देह अब न नेह कहीं
फिर भी तुम देते स्नेह किसे
न अब हूँ मैं मैं सांवरे
तुम ही तुम महसूस होते हो क्यों
कहो न श्याम क्या कहते हैं इसे
अगर ये महोब्बत नहीं

न जीना है अब न मरना है
खुदकुशी की भी कोई वजह नहीं
न आनंद श्याम अब न विरह है
फिर भी क्यों ये तड़प है
क्यों हर पल खोने की सी ललक
क्यों हैं आँखों में ये अश्क
क्यों तुमसे मिलकर हूँ अब अधूरी सी
तुम हो भीतर बाहर तुम ही
फिर भी है ये प्यास क्यों ही
कहो क्या कहते हैं इसे राधे
अगर ये तेरी प्रीति नहीं

न गिरती हैं अब पलकें
न ये कभी उठती ही
न चैन है अब न नींद इनमें
पर न लगती ये जगी ही कभी
खोई हैं हर दम
तलाशती किसे
दिखते हो बस अब तुम ही
खुद को देखने की नज़र ही न रही
कहो क्या कहते हैं श्याम इसे
अगर ये तुम से वफा नहीं

खो बैठी हूँ खुद को
यूँ जैसे कभी थी ही नहीं
लिखती हूँ तो भी क्यों
पन्नों से आती महक तेरी
दिल निकल आता है हाथों पे
लेने लगती है उंगलियां सांसें मेरी
रह जाती मुझमें मैं ही नहीं
मुख से अब निकलती नहीं ध्वनि मेरी
लगता जैसे भीतर बोल रहे तुम ही
कहो क्या होता है ये
अगर ये दर्द-ए-महोब्बत नहीं

जीने लगते हो तुम मुझे
ज़िंगदी बन गए हो तुम
राधे संग दिल की धड़कन बने तुम
कभी निकलती आह-ए-जुदाई कहीं
कभी उठती बज रास तरंगें ही
कभी बुझ कर दिए सी अंधियारी
कभी हो जाती हूँ झिलमिलाती रोशनी सी
कभी हो जाती हूँ थिर सी
कभी थिरकने लगती हूँ कभी रूकुं ही नहीं
क्या कहते हैं कहो मोहन इसे
जब कहते इसे प्यार नहीं

न तलब अब संवरने की
न हाथ में महेंदी न चूड़ी ही
न पग में पायल न नूपुर कोई
न माथे बिंदिया न सजी मांग मेरी
जो ली तुमने जगह आँखों में
तो अब कजरे की धार नहीं
न किसी को भा जाने की इच्छा
न किसी से भी स्नेह की आस
जी उठती हूँ तुम्हें पाकर
नव किशोरी हो जाती हूँ
हो जाती हूँ दुल्हन सी
जब देते तुम मुझे आलिंगन
कहो क्या कहते हैं इसे
अगर ये तुमसे प्रेम सगाई नहीं

झूठे जग के लिए झूठी ही सही
पर तेरे प्रेम एहसास को सच समझती हूँ
तेरी हूँ तुम मेरे हो
इसी आस पर अब जीती हूँ
तुम जीवन मेरा मैं महोब्बत तेरी
है गर झूठ तब भी बनी जीने की वजह यही
अब इस को तुम सच भी न करो
मुझे कोई तुमसे दरकार नहीं

न फरियाद करूं न शिकायत तुमसे
बस मेरी महोब्बत को न करो
मोहन किसी के मोहताज कभी
जी लेने दो मुझे झूठे आवरण में
करदो मोहन मेरा आज़ाद-ए-ऐलान अभी
मुक्ति दो मुझे तेरे खास बंदों से भी
खो जाने दो मुझे बेशक गुमनाम ही
मुझे रहने दो अपनी यादों में
करदो मेरे प्रेम को खुद आबाद हरि
रहूँ न करूँ तेरे बड़े बड़े प्रेमियों में
अपना नाम शुमार कभी

डुबादो मुझे अपने प्रेम में इतना
रहे न तृषित न तृषा कहीं
करूँ न मैं बात किसी से
न हो कोई किसी से चाह राधे
दो इतनी शक्ति मुझे
कि हो जाऊँ मैं जग से रूख्सत अभी
रहूँ तेरी प्रीत में आबाद हरि
भुला दो ये जग सारा
हो जाऊँ मौन भीतर बाहर से हरि
हो अब युगल रस पाक मुझमें
बनालो मुझे अपनी सलोनी छवि
बनालो मुझे अपनी दासी राधे
मन से करूँ खुद को अर्पण हरि

"बेचैन हैं रोते रहते हैं
आँखों में फिर भी अश्क नहीं
हैं शिकवे और गिले कितने
पर होंठों पे फिर भी लफ्ज़ नहीं
तेरे सामने बैठ कर रोती
पर तेरा पता मालुम नहीं"

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