जय श्री कृष्ण
कान्हा ! प्रभु !
तुम्हें स्मरण करते ही मुझमें अंतर्निहित,भक्ति रूपी
नन्हीं बालिका,बाहर निकलने को आतुर हो उठती है
प्रसन्नता से ओतप्रोत,शुभ कामना सी मासूम
इठलाती नदी की उद्वेलित तरंगों सी
उदासी,नैराश्य,विषाद के तटों को तोड़ने लगती है
प्रभु-सागर के मिलन की अभिलाषी
आस्था,विश्वास के अटूट बंधन से बँधी हुई
अपने कान्हा के चरणों में समर्पित होने की
अदम्य जिजिविषा हृदय में सँजोये
अनगिनत स्वप्न बुनने लगती है
बैठी हुई थी वह भक्ति रूपी नन्हीं बालिका
गहरी-उर-बीथियों में कहीं छिपी हुई
समझ रही थी जिसको मैं,वर्षों पहले कहीं विलय हुई
नये रूप में मिली मुझे वो
कृष्णमयी,चकित,आलौकिक-सी
भाव-समुद्र-फेन मथती,पारलौकिक-सी
बिखराती भक्ति-प्रकाश-ज्योति जीवन में
दशकों पूर्व की वह विलग हुई अनोखी सखी
शिशु की वाणी सी निश्छल
अनछुई कली ज्यों उपवन की
परिचित,कभी नितांत अपरिचित,मृग-मारीचिका
'मँजु' की नव-नवनीत प्रतिबिम्बित उर-अंर्तध्वनि
(डाॅ० मँजु गुप्ता )
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