तुमि जानत मोरे प्राण मनवाणी ।
मैं भी न जानूँ , जानो तुमहि ।
का दरद अति विरद विषद विपद दुर्गम शेष ।
कौ से कहू , मैं ही न जानूँ , भयो जो दरद विशेष ।
हिय फाटत सुनत पद तोरे जबहि करत वायु प्रवेश ।
निकलत प्रश्वासन संग भी पूछूँ का भयो मोरे देह देश ।
मौन निकलत वायु तबहिं और बढावे दरद पिय सन्देश ।
आवत जावत वायु बन तू , ले चल कबहुँ स्वदेश ।
प्राण मोरे न बसत , न बसत ध्यान अब तनिक इहँ परदेश ।
अबकि श्वासन रोकूँगी , तनिक बता मेरे पीर, काहे बिखरे केश ।
पिय का पीर भई मैं न जानूँ , पिय लिपट लिपट अब ही मर जानूँ अवशेष ।
मैं न जानूँ काज धरम अब काहे इहँ देस बचो पिय बिन सब जग कलह-कालेश ।
तृषित पिय वियोग बिन और न प्रताड़न , न ऐसो गहन भय अब कोई शेष ।
-- सत्यजीत तृषित ।।
Comments
Post a Comment