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सब कहते है कि रहता तू कण कण में है -सलोनी जी

सब कहते हैं कि
रहता है तू कण-कण में
पर मेरा मोहन तो बसता है
मेरे मन में..

कैसी ये विडम्बना है
तुम तुम ही हो
पर अब मैं मैं नहीं
दिखते हो मुझमें तुम में
सब में हरि ही हरि
अब कोई भेदभाव नहीं
समाए हो तुम कण कण में
मेरे तो हो तुम रोम रोम हरि

कौन हूं तुम्हारी
तुम कौन मेरे
सच कहुं सब कुछ तुम्हारी
और तुम सर्वस्व मेरे
मैं नहीं कुछ तुम बिन
तुम नहीं कुछ भी बिन मेरे
जीना तुम बिन मेरा नामुमकिन
रह पाना तुम्हारा भी मुश्किल
तुम हो पुरक मैं पूर्णा तेरी
तुम हो जीवन
मैं जीवन प्रतीती तेरी

ओढ़ी ऐसी प्रेम चुनरिया
हो हो गई मैं प्रिय तेरी ही तेरी
मैं हूँ इक किरदार सी
तुम मेरे नाटक के शक्तिमान हरि
तुम हो रचयिता इस प्रेम कहानी के
मैं भी इक सुघड़ सलोनी कविता तेरी
तुम पिरोते हो मुझे लफ्ज़ों में
करते अलंकृत अधर छुअन से
मैं बन बन जाती इक सजल सरल प्रेमभाव हरि

तुम समाते हो मुझमें कुछ यूँ
कि मैं हो जाती हूँ इक ख्वाब-ए-ख्याल हरि
तुम लेते हो आलिंगन में
मैं भर लेती हूँ इक ऊंची उड़ान हरि
सिमट कर तेरे आगोश में
हो जाती हूँ  हर एहसास हरि
फिर भरते हो मुझमें तुम कुछ रंग ऐसे
मैं हो जाती हूँ श्यामल सी
तुम देखते हो कुछ यूँ
नयन तीर से लगते हैं
बह जाती हूँ अश्रुधार सी
तुम समेट ना लो मुझे कहीं
बिखर जाती हूँ तेरी भुजाओं में
तुम देते रहो मुझे प्रेम अपार हरि

प्रेम करो कृष्ण प्रेम करो कृष्ण
कह कह कर रहती हूँ फिर भी प्यासी ही
दूर न कहदे मुझे तुमसे कोई
हो हो जाती हूँ मैं तुम्हारे और पास हरि
होती हूँ तेरी इक इक अदा पर निहाल
कह नहीं पाती कुछ भी एक बार
तुम तो हो मेरे तन मन के जाननहार
हो जाती हूँ मैं अकेले में तार तार

कब तक कान्हा ये झूठा स्वांग रचुंगी
आ जाओ तुम सच में इक बार
कहीं रह न जाऊं मैं कल्पना बनकर
कर जाओ मुझे सच इक बार
बह ना जाए ये लहर इक बूंद बनकर
थाम लो तुम इसे करलो अपना इक बार
भरकर अपने गहन आलिंगन में
करदो मौन मुझे कि कभी
फिर ना जिऊं ना लिखुं कोई हृदय के उदगार
खोकर तुममें कहीं
खो जाऊँ खुद को
हूँ कहीं या नहीं
करदो मुझे गुमनाम इक बार

यकीं मानो अब नहीं मुझे जीना
इक पल भी तुम बिन हरि
हुआ मेरा पल पल भी युगों समान हरि
करदो अंत मेरे जीवन का
कि यूँ खामोश मुझसे हुआ जाता नहीं
दम भरता है मुझमें दम तेरे होने से
वरना तो हूँ मैं नहीं कुछ भी हरि
तन्हाईयां मुझे डसती हैं
आहें भी मेरी मुझपे हसती हैं
तुमसे प्रेम की भावनाएं भी मुझमें
मुझसे आज़ाद होने को सिसकती हैं
चाहतें तेरे प्रेम की मेरी कैद में
दिन रात तड़पती हैं
करती है ज़िंदगी भी मेरे भीतर से
अब आज़ादी की पीड़ाजनक गुहार हरि

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