"तसल्ली से पढ़ा होता
तो समझ में आ जाते हम
कुछ पन्ने बिन पढ़े ही पलट दिये होगें तुमने"
हाँ हरि भगवान हो
पूजा है तुम्हें
सखा बना हर गम-ए-एहसास कहा भी
महसूस किया तुम्हें सदा यूँ भीतर
कि मैं कभी कहीं हूं भी कि नहीं
तुम उतरे मुझमें यूँ प्रेम बनकर
कि फिर कभी हुए हम जुदा नहीं
तुम हो अगर रचयिता इस प्रेम कहानी के
तो मैं भी हूँ सुंदर सलोनी कविता सी
हाँ हरि तुम हो मेरी प्रेम भक्ति हरि
प्रेम तेरा यूँ जब सर पर सवार हुआ
तो इश्क-ए-जुनूं सा आभास हुआ
लगा तब यूँ कि शक्ति राधा का मुझमें
पुनर्निर्माण हुआ
राधे कृष्ण कृष्ण राधे
दोनों ही यूँ जीने लगे
जैसे मैं हूँ ही नहीं
प्रेम रस को पीने लगे
रास महारास जब हुआ आरम्भ
तो कली ये भी खिलने लगी
कृपा दृष्टि ऐसी डाली
पात्र कुपात्रता का भेद भुला
रोम रोम महकने लगी
हाँ मेरे लिए हो तुम शक्तिमान वही
मैं नहीं मानती तुम्हें दासों के दास हरि
तुम हो सच्चे प्रेमियों के प्रेम हरि
ना ही राधा खुश है
जिसके लिए बनी ये छवि तेरी
वो तो हैं प्राणन ते प्यारी संगिनी तेरी
तुम हो जगत के आधार हरि
हाँ राधा ही है पतवार तेरी
वही हैं तेरी शक्ति अपार हरि
छुप जाओ अब प्रिया संग मुझमें हरि
बातें ये गुप्त ही रहें
कलि में कोई इनका हकदार नहीं
अब कभी कुछ न कहना है न करना
सम्भालो राधे पतवार मेरी
प्रेम भक्ति रस में डुबा दो
रखलो समेट के खुद में कहीं
अब बस सेवा देदो
किसी गरीब की झोली भर
लगा सकुं मेहंदी चंदन उनको
जो तपते फिरते बिन घर बार ही
आंसु और सेवा ही भक्ति की प्रगाढ़ता हैं
ये बात मैं मानती हूँ
लेकिन अब मुझे और तुम्हें बनना कमजोर नहीं
आओ राधे बनें हम कृष्ण की ढाल ही
करें कुछ जन कल्याण सेवा
बनादो मुझे इस काबिल ही
देदो राधे कुछ ऐसी सेवा
जो ना होकर भी हो कृष्ण की सेवा सी
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