Skip to main content

बात नहीँ करनी मुझसे पर मुझे कुछ , सलोनी जी

बात नहीं करनी मुझसे
पर मुझे आज कुछ कहना है तुमसे
मेरा मन है घर तेरा
अनकही भी सब तुम समझते हो
क्या है मेरे दिल में वो मुझसे पहले तुम ही पढ़ते हो
मेरे भीतर मैं हूँ या तुम ही रहते हो
कभी राधा बन जीते हो
तो कभी कृष्ण बन पीते हो हरि
क्यों तुम ऐसा करते हो
क्यों मैं मर जाती नहीं
जब हूँ ही नहीं कहीं
जब आत्मा परमात्मा सब तुम ही हो
तो क्यों है ये देह हरि
छिन्न करदो अब इसको भी या चले जाओ तुम हरि
नहीं तो मुझे समा लो यूँ खुद में ले जाओ जहाँ कोई बंधन नहीं
दम घुटता है इस देह में मेरा
करदो बंधनमुक्त हरि
हालत है मेरी क्या ये या ये भी तो तुम ही नहीं कहीं
हृदय होता है न जहाँ
वहाँ अब धड़कन नहीं
धधकते हो वहाँ तुम ही
रवानगी होती है जहाँ लहु की
वहाँ रगों में प्रेम बन बहते हो तुम ही
महकते हो अब तुम यूँ भीतर
कि सांसों की भी अब ज़रूरत नहीं
मेरी बोली में भी तुम उतरे हो
हर हरकत में तुम ही हो
हक तुम्हारे हों सब जैसे
मेरा अब कुछ भी नहीं
भाव भी रो देते हैं जैसे वो मेरे हों ही नहीं
जब तुम ही हो कभी कृष्ण की राधा बनकर
कभी राधा के कृष्ण बनकर समाए मुझमें
तो मैं हूँ ही क्यों हरि
आंखों से बहते हैं आंसु भी यूँ जैसे हों मेरे बेगाने कोई
विरह तड़प कंपन स्पंदन सिहरन तपन जकड़न
कभी तपन तो कभी शीतल
इनमें भी तो अब मैं हूँ ही नहीं
तुमसे मिल कर किया ये जग बेगाना
पर तुम तो मिल कर मुझसे कर गए ये देह बेगानी
प्रकृति में भी तुम हो समाए
श्याम घन बनकर कभी सरस मादक पवन बनकर
बरस जाते हो तुम कभी मेघ बन
कभी चाँद की शीतलता तो कभी सूर्य की तपन बनकर
कभी तुम होते हो श्याम गर्जन तो कभी चमकते हो बिजली सी राधा होकर
तुम उतरते हो सर्द श्वास बन
और बह जाते हो अश्रु बनकर
क्या इसी को कहते हैं प्रेम हरि
देखो तुम्हें माना सर्वस हरि
तन मन धन से हूँ समर्पित हरि
लेकिन अब और सहा नहीं जाता हमसे
क्या सुनते हो तुम करूण पुकार हरि
कानों में गूँजते हो तुम राधा बनकर
आँखों में बसते हो कृष्ण हो कर
छाये हो तुम दिल-ओ-दिमाग पर जीवन बनकर
महसूस होते हो तुम ही भीतर बाहर हरि
कि मुझे भी इस देह से कोई अब सरोकार नहीं
मैं तो हूँ दासी तेरी तुम मेरे जीवनाधार हरि
मैं हूँ कुछ भी नहीं तुम हो मेरे शक्तिमान हरि
करदो इस देह से मुक्त
बंधन न हो कोई भीतर
ऐसा करदो कि कोई रोक न हो
कोई न बुलाए मुझे तब जब उतरे हो तुम भीतर मेरे
कहना ना हो अभी तुम जाओ हरि
समाए हो अभी मुझमें तुम
अब समालो मुझे खुद में हरि
ना मैं रहुं न ये बंधन रहें
करदो मुझे निष्प्राण हरि
करदो मुझे निष्प्राण हरि

Comments

Popular posts from this blog

युगल स्तुति

॥ युगल स्तुति ॥ जय राधे जय राधे राधे, जय राधे जय श्री राधे। जय कृष्णा जय कृष्णा कृष्णा, जय कृष्णा जय श्री कृष्णा॥ श्यामा गौरी नित्य किशोरी, प्रीतम जोरी श्री राधे। रसिक रसिलौ ...

वृन्दावन शत लीला , धुवदास जु

श्री ध्रुवदास जी कृत बयालीस लीला से उद्घृत श्री वृन्दावन सत लीला प्रथम नाम श्री हरिवंश हित, रत रसना दिन रैन। प्रीति रीति तब पाइये ,अरु श्री वृन्दावन ऐन।।1।। चरण शरण श्री हर...

कहा करुँ बैकुंठ जाय ।

।।श्रीराधे।। कहाँ करूँ वैकुण्ठ जाए.... जहाँ नहीं नंद, जहाँ नहीं यशोदा, जहाँ न गोपी ग्वालन गायें... कहाँ करूँ वैकुण्ठ जाए.... जहाँ नहीं जल जमुना को निर्मल, और नहीं कदम्ब की छाय.... कहाँ ...