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शुद्ध तत्सुख-मयनेह

राधे राधे ,,शुद्ध तत्सुख-मय नेह ===गोपीजन सर्वस्‍व त्‍यागकर भगवान् के पास आईं थीं। भगवान ने लोक एवं वेद का भय दिखला कर उनकी प्रीति को टटोला, किन्‍तु गोपीजनों की भाव-सरिता एक हिलोर में इन बाधाओं को पार कर गई। भगवान ने हर्षित होकर रास  आरंभ कर दिया। भगवत् -प्रेम की वर्षा होने लगी। इस अद्भुत कृपा को देखकर गोपीजनों का ध्‍यान अपनपे की ओर चला गया और वे अपने को ‘संसार की सब स्त्रियों अधिक मानवती मानने लगी’- ‘आत्‍मनं मेनिरे स्‍त्रीणां, मानिन्‍योअभ्‍यधिकं भुवि।‘ अपनपे के उभर अपने के कारण उनके और भगवान के बीच में एक व्‍यवधान खड़ा हो गया और भगवान उनकी दृष्टि से ओझल हो गये। गोपीजन एवं श्रीकृष्‍ण के प्रेम का रूप लोक में अनुभूत प्रेम-स्‍वरूप से मिलता जुलता है। इस रूप में सम्‍पूर्णत: तत्‍सुख-मय बनने की क्षमता नहीं है। इस प्रेमरस के आलम्‍बन स्‍वयं भगवान एवं उनकी आल्‍हादिनी शक्ति-स्‍वरूपा गोपीगण हैं, अतएव यह इतना आकर्षक बन गया है। शुद्ध तत्‍सुख-मय प्रेम का स्‍वरूप इससे विलक्षण होता है। श्री ध्रुवदास जी बतलाते हैं। ‘नित्‍य-विहारी श्रीराधा -माधव को प्रेम और ही प्रकार का है, उसकी रीति -भातिं अद्भुत है और वह मुझसे कही नहीं जाती। शुद्ध तत्‍सुख -मय नेह की रीति यह है कि जिसका मन जिससे मान जाता है वह उसके हाथों बिक जाता है, और इसी नाते उससे सम्‍बन्धित सब बाते उसको प्‍यारी लगती हैं। उसको वही बात रूचती है जो प्रियतम को भाती है। जिन ब्रजदेवियों के प्रेम की धुजा अत्‍यन्‍त ऊँची बँधी है और जिनकी चरण-रज की कामना ब्रह्मदिक भी करते हैं, उन गोपीजनों का मन भी उस नेह की रीति को स्‍पर्श नहीं करता जिसकी छवि का दर्शन ललितादिक सखी-गण करती हैं। इस रसरीति में दोनों परस्‍पर प्रियतम हैं और दोनों परस्‍पर अति-आसक्‍त हैं। इन दोनों का एक स्‍वभाव है और दोनों ने परस्‍पर अपने मनों को हार रखा है। महा-मधुर प्रेम-रस में नेह की एक बेलि बढ़ी हुई है और यह दोनों नवल-नवेली उसका अवलम्‍ब लेकर स्थित हैं।'
तिनकौ प्रेम और ही भांति, अद्भुत रीति कही नहिं जाति।
जाकौ है जासौ मन मान्‍यौ, सो है ताके हाथ बिकान्‍यौ।।
अरू ताके अँग सँग की बातें, प्‍यारी लगत सबै तिहि नाते।
रूचै सोइ ताकौं भावै, एसी नेह की रीति कहाबै।।
ब्रज देवनि के प्रेम की, बँधी धुजा अति दूरि।
ब्रह्मदिक बांछित रहैं, तिनके पद की धूरि।।
तिनहूँ कौ मन तहां न परसै, ललितादिक जिहिं ठां छवि दरसै
अति आसक्‍त परस्‍पर प्‍यारे, एक स्‍वभाव दुहुनि मन हारे।
रस में बढ़ी नेह की बेली, तिहि अवलम्‍बे नवल-नवेली।।
[[साभार==श्रीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -=श्री ललिताचरण गोस्वामीजी ]] जय श्री राधे ..

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