निरखि मुखचंद तुहारौ नाथ
भयौ जनम-जीवन मेरो यह सार्थक धन्य सनाथ
भये प्रसन्न सफल मेरे ये जुगल नयन सब अंग
उछलि रह्यौ मन आनंदांबुधि बिबिध बिचित्र तरंग
पाँच परान प्रेम-रस भींगे, आत्मा उमड्यौ नेह
जरत बिरह-पावक अति भीषन बरस्यौ अमरित-मेह।
डारि पियूष-बरषिनी दृष्टि मो तन,मेट्यौ ताप
भर्यो सुधा-सागर उर-अंतर सीतल सुखद अमाप
रहते तुहरे ढिंग यह मेरी सुन्दर देह पवित्र
सोभा-सुषमामयी रहत नित,सक्ति-सुरूप,बिचित्र
रहूँ सिवा, सिवदा, सिव-बीजा,सिव-स्वरूपा नित्य।
बनी रहूँ मैं प्रियतम! तुहरे संग सुमतिमयि सत्य
पलक एक तुहरे बिछुरत ही होय सकल सुभ नास
सक्ति, सुमति, सुषमा,सुंदरता, सुद्धि, मधुर-आभास
बिनसत सकल तुरत मुर्दा-ज्यों धरनी पर्यौ सरीर
सिव-बिहीन, अति दीन,दुःखमय, दारुन, बिकल, अधीर
यह सब समुझि प्रानवल्लभ अब मति बिछुरौ पल एक
परम उदार निबाहौ प्रियतम प्रीति-रीति की टेक।
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