Skip to main content

सूखकर काँटा हुआ तन विकल था बेहाल मन , भाई जी

श्रीभाईजी (पदरत्नाकर --श्रीराधा-माधव-लीला-माधुरी ) ---

सूखकर  काँटा  हुआ तन  विकल  था   बेहाल मन।
बाल बिखरे  शुष्क थे  मुरझा  हुआ  था  विधु वदन।।
मुख निकलती  आह थी   थी आँख  आँसू  से  भरी।
बसन   अस्तब्यस्त   थे,   थी    दुखलता   पूरी  हरी।
सखी  समझाने  लगी, 'तुम  हो  रही हो क्यों विकल?
भूल  जाओ   उसे  अब  क्यों   रट रही  प्रत्येक पल?'
'भूल   जाना   चाहती हूँ ,   भूल   पर   सकती  नहीं।
ज्यों  हटाना  चाहती  मन ,   दौड़  कर   जाता  वहीं।
नहीं   लेना   चाहती   मैं   उस  निठुर   का  नाम भी।
जीभ   पर   रटती  सदा,   नहिं    मानती  मेरी  कभी।
रोकती  हूँ   कान   को   पर   वे   न    मेरी     मानते।
प्रियवचन    मुरली -सुधा   ही   सिर्फ   पीना   जानते।
बंद  करती  हूँ     निगोड़ी  नासिका  को      मैं   सदा।
श्याम  अंग - सुगंध  को,  पर , नहीं तजती  वह  कदा।

कब   चरण - रज  सिर  चढ़ा कर  धन्य हूँगी मैं अमर।
कब  करूँगी   नेत्र   शीतल,  निर्निमिष मुख  देखकर।
कब  लगाऊँगी   अगर - मृगमद - चुआ -चन्दन शरीर।
कब  चढ़ाऊँगी  सुमन  सुरभित  चरण  होकर  अधीर।
फट रहा है   हृदय  मेरा , जल  रही    ज्वाला   अमित।
कहाँ जाऊँ ? क्या करूँ ?  पाऊँ कहाँ प्रियतम अजित।'

आ गये   नटवर  अचानक    लिये  मुरली   मधुर  कर।
वितरते  आनन्द ,   छायी     मुसकराहट   मृदु    अधर।
देखते  ही   मिट  गये    संताप   तन   मन   के  सकल।
सुख - सुधोदधि  उमड़  आया  हो  गया  जीवन सफल।
ली  तुरंत   मधुर   हृदय  में  मिली खोयी निथि  ललाम।
सह  न  पायी  तनिक  सा अवकाश भूली निरख श्याम।
हुई  विस्मृति   सकल  जग की , ' मैं ' तथा  'मेरा '  गये। एक  लीलामय   मधुर   रस - रसिक  रसनिधि  रह गये।

*****************************************

मुरली ध्वनि में प्रियतम श्रीकृष्ण के रसमय आह्वान पर गोपियों का सर्वत्याग कर भगवान की ओर अभिसार -
श्री भाईजी ( पद-रत्नाकर ) - 

मुरली के मधु स्वर  में पाकर प्रियतम का रसमय आह्वान।
हुई सभी उन्मत्त, चली तज लज्जा,धैर्य शील,कुल मान।
पति,शिशु, गृह, धन,धान्य,वस्त्र,भूषण,गो,करभोजनका त्याग।
चली जहाँ जो जैसे थी भर मन में प्रियतम का अनुराग

Comments

Popular posts from this blog

युगल स्तुति

॥ युगल स्तुति ॥ जय राधे जय राधे राधे, जय राधे जय श्री राधे। जय कृष्णा जय कृष्णा कृष्णा, जय कृष्णा जय श्री कृष्णा॥ श्यामा गौरी नित्य किशोरी, प्रीतम जोरी श्री राधे। रसिक रसिलौ छैल छबीलौ, गुण गर्बीलौ श्री कृष्णा॥ रासविहारिनि रसविस्तारिनि, प्रिय उर धारिनि श्री राधे। नव-नवरंगी नवल त्रिभंगी, श्याम सुअंगी श्री कृष्णा॥ प्राण पियारी रूप उजियारी, अति सुकुमारी श्री राधे। कीरतिवन्ता कामिनीकन्ता, श्री भगवन्ता श्री कृष्णा॥ शोभा श्रेणी मोहा मैनी, कोकिल वैनी श्री राधे। नैन मनोहर महामोदकर, सुन्दरवरतर श्री कृष्णा॥ चन्दावदनी वृन्दारदनी, शोभासदनी श्री राधे। परम उदारा प्रभा अपारा, अति सुकुमारा श्री कृष्णा॥ हंसा गमनी राजत रमनी, क्रीड़ा कमनी श्री राधे। रूप रसाला नयन विशाला, परम कृपाला श्री कृष्णा॥ कंचनबेली रतिरसवेली, अति अलवेली श्री राधे। सब सुखसागर सब गुन आगर, रूप उजागर श्री कृष्णा॥ रमणीरम्या तरूतरतम्या, गुण आगम्या श्री राधे। धाम निवासी प्रभा प्रकाशी, सहज सुहासी श्री कृष्णा॥ शक्त्यहलादिनि अतिप्रियवादिनि, उरउन्मादिनि श्री राधे। अंग-अंग टोना सरस सलौना, सुभग सुठौना श्री कृष्णा॥ राधानामिनि ग

वृन्दावन शत लीला , धुवदास जु

श्री ध्रुवदास जी कृत बयालीस लीला से उद्घृत श्री वृन्दावन सत लीला प्रथम नाम श्री हरिवंश हित, रत रसना दिन रैन। प्रीति रीति तब पाइये ,अरु श्री वृन्दावन ऐन।।1।। चरण शरण श्री हरिवंश की,जब लगि आयौ नांहि। नव निकुन्ज नित माधुरी, क्यो परसै मन माहिं।।2।। वृन्दावन सत करन कौं, कीन्हों मन उत्साह। नवल राधिका कृपा बिनु , कैसे होत निवाह।।3।। यह आशा धरि चित्त में, कहत यथा मति मोर । वृन्दावन सुख रंग कौ, काहु न पायौ ओर।।4।। दुर्लभ दुर्घट सबन ते, वृन्दावन निज भौन। नवल राधिका कृपा बिनु कहिधौं पावै कौन।।5।। सबै अंग गुन हीन हीन हौं, ताको यत्न न कोई। एक कुशोरी कृपा ते, जो कछु होइ सो होइ।।6।। सोऊ कृपा अति सुगम नहिं, ताकौ कौन उपाव चरण शरण हरिवंश की, सहजहि बन्यौ बनाव ।।7।। हरिवंश चरण उर धरनि धरि,मन वच के विश्वास कुँवर कृपा ह्वै है तबहि, अरु वृन्दावन बास।।8।। प्रिया चरण बल जानि कै, बाढ्यौ हिये हुलास। तेई उर में आनि है , वृंदा विपिन प्रकाश।।9।। कुँवरि किशोरीलाडली,करुणानिध सुकुमारि । वरनो वृंदा बिपिन कौं, तिनके चरन सँभारि।।10।। हेममई अवनी सहज,रतन खचित बहु  रंग।।11।। वृन्दावन झलकन झमक,फुले नै

कहा करुँ बैकुंठ जाय ।

।।श्रीराधे।। कहाँ करूँ वैकुण्ठ जाए.... जहाँ नहीं नंद, जहाँ नहीं यशोदा, जहाँ न गोपी ग्वालन गायें... कहाँ करूँ वैकुण्ठ जाए.... जहाँ नहीं जल जमुना को निर्मल, और नहीं कदम्ब की छाय.... कहाँ करूँ वैकुण्ठ जाए.... परमानन्द प्रभु चतुर ग्वालिनी, ब्रजरज तज मेरी जाएँ बलाएँ... कहाँ करूँ वैकुण्ठ जाए.... ये ब्रज की महिमा है कि सभी तीर्थ स्थल भी ब्रज में निवास करने को उत्सुक हुए थे एवं उन्होने श्री कृष्ण से ब्रज में निवास करने की इच्छा जताई। ब्रज की महिमा का वर्णन करना बहुत कठिन है, क्योंकि इसकी महिमा गाते-गाते ऋषि-मुनि भी तृप्त नहीं होते। भगवान श्री कृष्ण द्वारा वन गोचारण से ब्रज-रज का कण-कण कृष्णरूप हो गया है तभी तो समस्त भक्त जन यहाँ आते हैं और इस पावन रज को शिरोधार्य कर स्वयं को कृतार्थ करते हैं। रसखान ने ब्रज रज की महिमा बताते हुए कहा है :- "एक ब्रज रेणुका पै चिन्तामनि वार डारूँ" वास्तव में महिमामयी ब्रजमण्डल की कथा अकथनीय है क्योंकि यहाँ श्री ब्रह्मा जी, शिवजी, ऋषि-मुनि, देवता आदि तपस्या करते हैं। श्रीमद्भागवत के अनुसार श्री ब्रह्मा जी कहते हैं:- "भगवान मुझे इस धरात