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ऐसी असहनीय व्याकुलता , एक भाव संगिनी

"जुम्बिश लबों की तेरी दस्तक थी दिल पे मेरे..
उफ़्फ़ बेक़रारी-ए-दिल, था इंतज़ार एक हाँ का!"

ऐसी असहनीय व्याकुलता
ऐसा विरह जो जान लेले
अग्न ताप जिसमें सब झुलस ही जाए
सखी ऐसा नेह लगाया ही क्यों
ना जानती थी क्या ऐसे प्रेम में मिलन सहज रूप से संभव ना होगा
क्यों ऐसी पीड़ विरह वेदना वाली लगाई सखी
अरी
तुझे देखने भर से तेरी व्यथा का एहसास कर पा रही हूँ तो तू ना जाने इसे सह भी कैसे लेती है
एहसास मात्र से अश्रु भर आए इन नयनन में
पीड़ा हो रही है हिय में
असहनीय दर्द उठ आया है सीने में
सखी बता तेरे हृदय की पीड़ा तू इस ज्वालामुखी को कैसे सहती है
क्यों इतना इंतज़ार है तुझे उसका क्यों इतना उसे भजती है क्या वह भी तड़पता है या जानता भी है तेरी चाहत वही है
पता है कि नहीं उसे तू याद कर जिसे अनवरत आहें भरती है
क्या तू भी उसे यूँ ही याद आ रही है
बता क्यों उस बेदर्दी को तू जान से ज्यादा चाह रही है।

ना ना सखी बेदर्दी न कहना उसे अरी बेदर्द तो मैं हूँ जो मुहब्बत कर उनसे उनके आने की चाह कर बैठी ना ना कहना उनसे कुछ भी कि ये मलिन हृदय भाव हीना पाक मुहब्बत कर बैठी।
नहीं सखी मैं कहाँ इस काबिल थी कि उनसे प्रेम करूँ ये तो उनकी करूणा है जो मुझमें उनके प्रति एक क्षीण सी ज्योति जगी।वो तो हैं अत्यंत घनेरा प्रकाशपुंज जिनकी लो मात्र उन्होंने ही मुझमें जगादी।उनके अनवरत प्रेम में से इक अदना सी बूँद अधरों से छुआ दी।
अरी वो ना करते चाह मेरी तो उनको चाह सकुं ऐसी मेरी हस्ती नहीं वो खुद बेपनाह चाहते हैं कि मुझमें मिलन की तड़प उनकी ही तृषा ने लगा दी वो जो ना होते प्रेम पिपासु तो प्रेम पुजारिन ही बनुं ऐसी प्रेम भक्ति की शक्ति की प्यास भी मुझमें नहीं वो हैं दीनदयालु कि खुद उन्हें उनकी दया की पात्र लगी तृण मात्र सा छूकर उन्होंने दीन हीन मलीन दासी अपनाली वो खुद ही हैं करूणाकर कि करूणा दृष्टि से ये तुच्छ सदेह चमकादी।

और तू पूछती है वे हैं कहाँ।अरी अब कैसे बताऊं ये पूछ वे कहाँ नहीं हैं।कैसे दिखाउं अरी वे वे नहीं मैं ही हूँ।जितना तू देख रही मेरी तड़प को उससे कहीं ज्यादा उन्हें हैं जो मेरे भीतर देख सके कोई।

ज़हन की सोच आँख की नज़र कानों की पुकार नासिका की सुगंध मुख की ध्वनि हर उतरती श्वास दिल की धड़कन रोम रोम की सिहरन सब सोई।रगों में बहते खून की रवानगी हर एक सपन्दन हर चाह का मिलन हर विरह की तड़प सब सोई।तनप्राण की हलचल मन की आवाज़ सखी चाल चलन ढाल ढलन हर खुशी हर गम मेरा नृत्य या प्रगाढ़ चेतन अवचेतन सुमिरन तप या फिर विचल अविचल चित्तवन सब सोई।उन्माद अह्हलाद तरंगाईत हर एहसास हर एक भाव अभाव भी सोई।हसन रोवन बातन कुबातन हर लहर हर पहर दिशा विदिशा सखी सब सोई।आवन जावन मनभावन अभावन प्रकृति अप्रकृति प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष जिसे पा लूं या ना पा लूं जिसे खो दूँ न खो दूँ सखी अब सब वही।जब ना जिऊं ना मरूं उन्हें ऐसा कोई भागा अभागा पल ही नहीं।क्षण भर भी उनके पास रहूँ या दूरी सहुं अब ऐसा कोई जीवन ही नहीं।वे हैं तो हूँ सखी नहीं तो मैं हूँ ही नहीं कहीं।मेरा बोलन और चुप्पी थिरकन और मौन  सखी सब वही।हर हर्ष विहर्ष विचार विमर्श संगिनी का संग असंग प्रेम प्रीति काव्य व्यंग्य नीति अनीति हर एक एक प्रतीति सब सोई।हर क्रिया कलाप हर अलाप प्रलाप हर शिकवा हर ईनाम सब सोई।

अरी सखी कहाँ हैं वो???
तुममें मुझमें सब में हैं।
याद करते हैं वो???
वे ना करें तो याद हो ही ना सखी।ना चाहें तो चाह नहीं कोई ।ना पुकारें तो पुकार ही ना कोई ।ना कहें कुछ तो बात ही नहीं कोई ।उनके प्रेम के बिना जग में प्रेम पनपता ही नहीं।वे हैं तो प्रेम में डूबी मीरा और राधा भी हैं सखी सोई।चाह रहे वो खुद को हमारी ही चाह बन कोई।हाँ सखी उनको जैसे प्रेम है खुद से अनगिनत गोपियाँ भी राधे हो आईं।वो रसिक रस पीने के लिए खुद रसमयी।रहते तब भी तृषित कि प्यार करे उनसे चाहे हर कोई उनकी तृषा अनवरत रहे अनबुझी।वे हैं ऐसे प्रेम पिपासु कि खुद ही वो मदिरा पान को कई प्यालों में उतर हुए हैं मदमस्त नशई।
खुद खुद के ही लगते वो अंक बाहर और भीतर हैं वो खुद ही।ये पूछ कहाँ वे नहीं???
प्रकृति के कण कण में वही।हर लहराती लता डाल पात हरियाली खलियान में हैं वही।पुष्प व पुष्पों से आती सुगंध हैं वही।तितली के रंगों में भंवरे की कालिमा में वही।हर चलायमान जीवन की स्वतंत्रता मादकता में वही।ऊंची उड़ानों और बहती गहराईयों में वही।सूरज चाँद सितारों में देखो बतियाते हैं वही।सागर की लहरों में लहराते मधुर संगीत की ध्वनि जैसे हैं वही।देखा है उनको सर्वथा सर्वत्र सिमटे और फैले हर कहीं बस वही वही वही हैं सखी।

नहीं!!नहीं मैं तन्हा सखी।अंग संग वो हैं मेरे हर कहीं।मेरी तनहाई में मुझे सहलाते बहक जाऊँ तो समझाते रोदूं तो आंसु पोंछ गुदगुदाते उदास हूँ तब भी कंठ लगाते हर तरफ मदमस्त मुझमें ही डोलते कभी हंसते कभी छेड़ जाते भटक ना जाऊँ हर राह वे खुद बनाते प्रेम बन कर वे मुझमें समाए हैं सखी।अंक लगाते नेह जताते अपना बनाते कभी मुस्काते कभी बतियाते।कभी मैं कभी वो हम एक दूजे से रूठ जाते वो मुझे सुनते चुपचाप और खुद एक पल में मान जाते।कहाँ हैं वो मुझसे दूर सखी वो घड़ी घड़ी खुद को मुझमें मुझे खुद में ही पाते।कभी वो एक से दो होकर लीला रचते तो जहाँ दो हुए वहाँ एक होने को सखी नेह करते एक दूजे में समा जाते।कभी प्रेमी कभी प्रेम विरही हो राधा माधव माधव राधा बन एकरूप युगल हो जाते।

"पूर्ण स्वरूप श्याम देखन हेत
श्यामा नयन तनिक निरखीये
यां नैनन में श्याम ऐसे बसे
स्याम में न स्याम ऐसे बसे"

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