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साधना का स्वरूप भाई जी अनुरूप

साधना का स्वरूप भाईजी के अनुसार..१.भगवत्प्रेम ही जीवन का एकमात्र उद्देश्य समझना और इसे हर हालत में निरन्तर लक्ष्य में रखकर ही सब काम करना।२.जहाँतक बने, सहज ही स्वरूपतः भोग-त्याग तथा भोगासक्तिका त्याग करना। जगत् के किसीभी प्राणी पदार्थ-परिस्थितिमें राग न रखना।३. अभिमान,मद,गर्व आदिको तनिक-सा भी आश्रय न देकर सदा अपने को अकिञ्चन, भगवानके सामने दीनातिदीन मानना।४.कहीं भी ममता न रखकर सारी ममता एकमात्र भगवान प्रियतम श्रीकृष्ण के चरणोंमें केन्द्रित करना।५.जगतके सारे कार्य उन भगवानकी चरण-सेवाके भावसे ही करना।६.किसीभी प्राणीमें द्वेष-द्रोह न रखकर, सबमें श्रीराधामाधवकी अभिव्यक्ति मानकर सबके साथ विनयका, यथासाध्य उनके सुख-हित-सम्पादनका बर्ताव करना। सबका सम्मान करना,पर कभी स्वयं कभी मान न चाहना,न कभी स्वीकार करना।७.जगतका स्मरण छोड़कर नित्य-निरन्तर भगवानके स्वरूप,नाम,गुण,लीला आदिका प्रेमके साथ स्मरण करना।८.प्रतिदिन नियत संख्या में,जितना सुविधापूर्वक कर सकें षोडस-मंत्र का जप करना/दिनभर रटते रहना। सुविधा हो तो कुछ समय तक इसीका कीर्तन करना।९.स्वसुख-वाञ्छाका, निज-इन्द्रिय-तृप्ति का, अपने मनके अनुकूल भोग-मोक्ष की इच्छाका सर्वथा परित्याग करके भगवान श्रीकृष्णको ही प्रियतम रूप से भजना तथा प्रत्येक कर्य केवल उन्हींके सुखार्थ करना।१०.आगे बढ़े हुये साधक "मंञ्जरी" भावसे उपासना कर सकते हैं।"मंञ्जरी" भाव का अर्थ--- अपनेको श्रीराधाजी की किंकरी मानकर आठों पहर श्रीराधामाधवके सुख-सेवा-सम्पादनमें अपनेको खो देना--केवल सेवामय बनादेना।११.अपने साधन-भजन तथा भगवतकृपा से होने वाली अनुभूतियों को यथासाध्य गुप्त रखना।१२.सम्मान-पूजा-प्रतिष्ठाको विषके समान समझकर उनसे सदा बचना।बुरा कार्य न करना, पर अपमान को अमृत समझ उसका आदर करना।

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