क्या तुम अनुगामिनी नहीँ ?
यह चतुर्थ परिभ्रमण है
तब होनी ही हो तुम संगिनी !!
हाँ अब पुलिन हो कालिन्दी का
मधुर स्वर छिड़ता है जहाँ
जहाँ तुम अब वहीँ वृंद
नित्य बिराजती मम् हित कंद
वैराग्य तुम्हारा शरणागत है
ज्ञान की तुम गायत्री ही
भक्ति आलाप लेती तुम
कभी यश देती
कभी ह्लादित करती
निकुँज पट ध्वनि तुम
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